बुधवार, 6 जनवरी 2016

नीतिज्ञ के मित्र-शत्रु

नीतिज्ञ महान होते हैं, उन तक पहुँच पाना बहुत कठिन कार्य होता है। ये लोग अपने आचार-व्यवहार से सबके प्रिय बन जाते हैं। इसलिए ऐसे लोगों के शत्रु नहीं होते और यदि ईर्ष्यावश कोई बन भी जाए तो वे संख्या में नगण्य होते हैं। वे ऊपरी तौर से चाहे उनका विरोध करते रहें, पर मन से उनके गुणों की प्रशंसा करते हैं। निम्न श्लोक में ऐसे गुणज्ञों के विषय में कहा है-
        शस्त्रो नीतिहीनानां यथापथ्याशिनां गदा:।
        सद्य: केचिच्च कालेन भवन्ति न भवन्ति च॥
अर्थात् जिस प्रकार अपथ्य खाने वालों को कभी-न-कभी रोग ग्रस्त कर लेते हैं, जबकि संयमी लोगों को कोई रोग नहीं होता। उसी प्रकार नीति विहीन व्यक्तियों के कभी शीघ्र और कभी विलम्ब से अनेक शत्रु बन जाते हैं। जबकि नीति का अनुसरण करने वालों के शत्रु नहीं होते अर्थात् सभी उनके मित्र बन जाते हैं।
         यह श्लोक हमें समझा रहा है कि जो लोग खाने-पीने में परहेज नहीं करते, वे कई रोगों की चपेट में आते हैं। अपनी जीभ पर उनका नियन्त्रण नहीं होता। जहाँ स्वादिष्ट, मसालेदार या चटपटा भोजन देखा वहीं उनकी लार टपकने लगती है। वे यह भी नहीं सोचते कि उनकी आयु के अनुसार वह भोजन उनके लिए लाभप्रद होगा या शरीर की हानिकारक। इसलिए शीघ्र रोग इन्हें अपना मित्र बना लेते हैं।
           इसी प्रकार अपनी वाणी पर भी इन लोगों का नियन्त्रण नहीं होता। जरा-जरा-सी बात पर भड़ककर लाल-पीले हो जाते हैं। बिना सोचे-समझे और बिना किसी का लिहाज किए हर किसी को जो मुँह में आया कह देते हैं। इसलिए ऐसे लोगों के शत्रु अधिक और मित्र कम होते हैं।
          संयमी व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को वश में रखते हैं। अपने जीवन को सदा ही नियमपूर्वक चलाते हैं। रोग इन्हें अपना मित्र बनाने से कतराते हैं।
          नीति विहीन लोग सदा बेपेन्दे लोटे या थाली के बैंगन की तरह होते हैं। वे इधर-उधर अनावश्यक रूप से ही भटकते रहते हैं। अपनी निजी कोई सोच-समझ न रखने के कारण वे प्राय: भेड़चाल में विश्वास रखते हैं। इनके लिए यही कह सकते हैं -
        'गंगा गए तो गंगा दास और यमुना 
         गए तो यमुना दास।'
अर्थात् जिस भी माहौल में जाते हैं, वहीं के होकर रच बस गए, उनका अपना कुछ भी मौलिक नहीं होता।
            हर किसी की बात पर ये जल्द ही आँख मूँदकर विश्वास करने वाले होते हैं। ऐसे लोग अक्सर दूसरे के झाँसे में आकर धोखे और ठगी के शिकार हो जाते हैं। जब अपना नुकसान जब कर बैठते हैं तब उन धोखेबाजों को कोसते हैं। उस समय फिर पश्चाताप करते हैं कि काश वे धोखे का शिकार होने से पहले चेत जाते, तो अपनी हानि न होने देते। यह तो वही बात हुई-
'सब कुछ लुटा के होश में आए तो क्या हुआ।'
          इसके विपरीत संयमी लोग सबके मित्र बन जाते हैं। उन महान् आत्माओं का अनुसरण बहुत से लोग करने  लगते हैं। उनके आचार-व्यवहार में एक अनुशासन होता है। वे किसी व्यक्ति का अहित करने के विषय में सोच ही नहीं सकते, बल्कि निस्वार्थ परोपकार के कार्य करते हैं। उनकी दृष्टि में कोई भी छोटा अथवा बड़ा मनुष्य नहीं होता। वे सदा धर्म, जाति, व्यवसाय, रग-रूप आदि मुद्दों से परे रहते हुए सब लोगों के साथ ही समानता का व्यवहार करते हैं। ऐसे व्यक्तियों का समाज निर्माण में सक्रिय योगदान रहता है।
           हमें स्वयं को निर्णय लेना है कि हम नीतिज्ञ एव संयमी बनकर स्वस्थ और समाज के दिग्दर्शक बनना चाहते हैं अथवा नीति-विहीन एवं इन्द्रियों के वश में रहने वाले बनकर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारकर मूर्ख बनना पसन्द करेंगे।
चन्द्र प्रभा सूद
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