रविवार, 3 जनवरी 2016

ईश्वर को पाने की तड़प

नदी का अन्तिम लक्ष्य सागर में समा जाना होता है। सागर तक पहुँचने की उसकी तड़प ही उसे सफल बनाती है। इसी प्रकार यदि मनुष्य अपने अन्तिम लक्ष्य मोक्ष को पाना चाहे तो वह सहजता से उसे प्राप्त कर सकता है। परमपिता परमात्मा से एकाकार होने की उसकी तड़प उसे अपने उद्देश्य से भटकाने में सफल नहीं हो सकती। अपने लक्ष्य की ओर उसका बढ़ता कदम ही उसे सफलता दिला सकता है।
          नदी को सागर से मिलने की और उसमें एकाकार होने की इतनी जल्दी होती है कि रास्ता रोकने वाली चट्टानों की परवाह किए बिना, उबड़-खाबड़ रास्तों से गुजरती हुई वह सागर में जाकर समा जाती है। दिन-रात का उसे कोई ख्याल नहीं होता। हर मौसम के वारों को झेलती हुई वह अपने लक्ष्य की ओर निरन्तर बढ़ती चली जाती है।
           हम मनुष्य बाँध बनाकर उसके प्रवाह को रोकते हैं। जगह-जगह उसमें हम कचरा डालते हैं। कभी-कभी आँधी और तूफान भी उसका रास्ता रोकने का यत्न करते हैं। फिर भी वह इन सब व्यवधानों को सदा ही अनदेखा करके अन्त में अपने गन्तव्य सागर तक पहुँच जाती है। सबसे मुख्य बात यह है कि वह बिना विश्राम किए अनवरत मीलों लम्बी यात्रा करती चली जाती है।
          यह भी सत्य है कि सागर में मिल जाने के बाद से उसका जल भी खारा हो जाता है। उसका अपना कोई अस्तित्व नहीं रहता। वह सागर का ही एक रूप बन जाती है। फिर भी उसकी तड़प सागर के साथ उसे एकरूप कर देती है।
           मनुष्य के मन में भी यदि ईश्वर को पा लेने की तड़प बलवती हो जाए तो वह भी मीराबाई की तरह संसार सागर के अगणित थपेड़ों को झेलता हुआ, उनसे बिना डरे और बिना रुके अपनी निश्चित डगर पर चल पड़ता है।
          सुखों की नरम मुलायम छाँव और दुखों के पहाड़ कदापि उसका रास्ता नहीं रोक सकते। ये सब उसके लिए कोई मायने नहीं रखते। इस दुनिया के प्रलोभन उसके लिए मिट्टी के ढेले के समान हो जाते हैं। वह इन प्रलोभनों में फंसकर अपना जीवन बरबाद नहीं करता।
           संसार के लुभावने यह मोह-माया के जाल उसके पैरों की बेड़ियाँ नहीं बन सकते। वह महात्मा बुद्ध की तरह एक ही पल में, एक ही झटके में उन सब जंजीरों को तोड़कर मुक्त हो जाने की सामर्थ्य रखता है। ऐसे ही लोग युगों तक स्मरण किए जाते हैं। इनके मार्गदर्शन का लाभ अनेक लोग उठाते हैं।
         पतंगे को ही देख लो। लौ का दीवाना, उसे पाने की चाहत में वह अपने प्राणों की आहुति तक दे डालता है। पर अपने लक्ष्य से नहीं भटकता। ऐसा दिव्य समर्पण भाव अन्यत्र कहाँ मिल सकता है? अपने प्राणों की परवाह किए बिना पतंगा अपने लक्ष्य को पाने के लिए कटिबद्ध रहता है।
            पतंगे जैसी दीवानगी यदि हो तो मनुष्य का लक्ष्य उसे शीशे की तरह साफ-साफ चमकता हुआ दिखाई दे सकता है। जिसे वह चाहे तो सरलता से हाथ बढ़ाकर पा सकता है।
          नदी और पतंगे दोनों के उदाहरण इसी बात को स्पष्ट करते हैं कि जब तक प्रेम की तड़प न हो तो मनुष्य इस संसार के सम्बन्धों को नहीं निभा सकता। क्योंकि माता-पिता, पति-पत्नी, भाई-बहन, मित्र, नाते-रिश्ते यानि हर भौतिक सम्बन्ध प्यार के बना अधूरा रहता है। जितना प्रेम का खिंचाव होता है, सम्बन्ध उतना प्रगाढ़ होता है। तो फिर प्रभु को प्रेम की तड़प हुए बिना कैसे पाया जा सकता है?
         मालिक को पाने के लिए सच्ची तड़प का होना बहुत आवश्यक है। तभी मनुष्य उसके पास जाने, उससे मिलने, उसे जानने, उसमें एकाकार हो जाने के सभी प्रयत्न करेगा और अन्तत: अपने इस लक्ष्य में भी सफलता प्राप्त करेगा।
चन्द्र प्रभा सूद
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