गुरुवार, 21 जनवरी 2016

माता-पिता की बादशाही

'माता-पिता की बादशाही होती है और भाई-बहनों का व्यापार' - ऐसा हमारे बड़े-बुजुर्ग कहा करते थे। सुनने और पढ़ने में शायद यह वाक्य कुछ अटपटा-सा लगता है परन्तु है बहुत सारगर्भित।
       माता-पिता अथवा उनमें से एक भी  जब तक जीवित होता है तब तक अधिकार पूर्वक मनुष्य उनके समक्ष अपनी इच्छा रख सकता है। वे भी ऐसे होते है जो बच्चों की इच्छाओं को यथासम्भव पूर्ण करने का प्रयास करते हैं। कभी-कभी बच्चों की माँग उनकी सामर्थ्य से परे की होती है। फिर भी बच्चों को किसी भी प्रकार का कष्ट न हो, ऐसा सोचकर वे उसे पूरा करने का भरसक प्रयत्न करते हैं।
          बच्चे माता-पिता से कभी रूठते हैं और कभी मानते हैं। उनसे जिद करके अपनी बातें मनवाते हैं। वे यह भी ध्यान नहीं रखते कि जिस वस्तु के लिए वे जिद कर रहे हैं, उसे लाकर देना उनके माता-पिता के बूते की बात है या नहीं। वे माता-पिता भी अपने बच्चों की मुँह से निकली बात को पूरा करने के लिए जी-तोड़ मेहनत करते हैं। न वे दिन देखते हैं और न रात की परवाह करते हैं।
          दुर्भाग्यवश यदि अभाव का समय आ जाए, तब वे अपने मुँह का निवाला भी बच्चों को दे देते हैं, ताकि उनके बच्चे भूखे न सोएँ। सारा जीवन अपने बच्चों के होठों पर मुस्कान बनाए रखने के लिए स्वयं खटते रहते हैं। उनको पढ़ा-लिखाकर योग्य बनाने में अपने किए गए श्रम को वे कुछ मानते ही नहीं हैं। उनका बस चले तो दुनिया की सारी खुशियाँ अपने बच्चों की झोली में डाल दें।
          अपने बच्चों के शादी-ब्याह आदि शुभकार्यों को सम्पन्न करते समय उनके चेहरों पर आए संतुष्टि के भाव देखते ही बनते हैं। ऐसे माता-पिता बच्चों से कोई आशा नहीं रखते। वे बस अपने बच्चों के जीवन की मंगल कामना करते नहीं अघाते।
          यदि कोई बच्चा शारीरिक या आर्थिक रूप से कमजोर होता है तो उस पर उनकी विशेष कृपा दृष्टि रहती है।
         माता-पिता का स्थान इस संसार में कोई नहीं ले सकता। बच्चों के प्रति उनके ऐसे त्याग और समर्पण के कारण ही उनके लिए बादशाही शब्द का प्रयोग हमारे सयानों ने किया है। वे बच्चों द्वारा किए गए दुर्व्यवहार को भी अनदेखा करके उनकी मंगल की कामना करते हैं।
          उनके अतिरिक्त सभी रिश्ते-नाते लेन-देन के व्यवहार पर चलते हैं। चाहे वह सम्बन्ध भाई-बहन का हो, दोस्तों का हो अथवा अन्य रिश्तेदारों का हो। जितना प्यार और सम्मान उनको दोगे, उतना ही पाओगे। उनके साथ न जिद की जा सकती है और न ही अपनी माँग को दृढ़तापूर्वक मनवाया जा सकता है। जितना दूसरों के बरतोगे उतना ही वे बरतेंगे। यदि उन लोगों के साथ कदम मिलाकर चलोगे तभी वे भी साथ निभाएँगे अन्यथा वे किनारा कर लेने में पलभर की देरी नहीं करते। इसका कारण यही है कि कोई भी व्यक्ति अपनी अवहेलना सहन नहीं कर सकता। हर व्यक्ति स्वयं को ईश्वर से कम नहीं समझता।
          इसीलिए माता-पिता के सम्बन्ध के अतिरिक्त सभी रिश्ते-नाते स्वार्थ से जुड़े हुए होते हैं। जहाँ तक स्वार्थ पूरे होते रहते हैं, वहीं तक सम्बन्ध बने रहते हैं। जहाँ पर जरा-सी लापरवाही हुई, वहाँ वे टूटकर बिखर जाते हैं। उस समय परस्पर दूरियाँ बढ़ जाती हैं। यदि इन सम्बन्धों को बचाए रखना चाहते हैं तो रिश्तों की गरिमा का ध्यान रखना आवश्यक है।
          माता-पिता की महानता और उनकी बच्चों के प्रति सहृदयता के कारण ही उनके काल को बादशाही का समय कहा गया है। उनके निस्वार्थ व्यवहार के आगे दुनिया के सभी सम्बन्ध बौने हैं। इसीलिए माता-पिता को ईश्वर का रूप कहा जाता है। उनकी जितनी भी सेवा की जाए कम होती है। उनके आशीर्वाद भी स्वार्थ रहित होते हैं। उन्हें अपने जीवन काल में लेते रहना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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