सोमवार, 1 फ़रवरी 2016

बेटे और बेटी में अन्तर

बेटी और बेटे में लिंगभेद का भाव उनके पैदा होने से ही आरम्भ हो जाता है। यद्यपि एक ही माता-पिता की दोनों ही सन्तान होते हैं और एक ही कोख से उनका जन्म होता है। फिर भी यह भेदभाव युक्त व्यवहार प्रायः हर घर में देखने को मिलता है।
          कहने और सुनने में यह बहुत अच्छा लगता है कि हमारे घर में बेटी व बेटे दोनों के साथ एक जैसा व्यवहार किया जाता है। यह सच है कि बहुत से माता-पिता आज दोनों की पढ़ाई-लिखाई के विषय में सोचने लगे हैं। उन्हें समान सुख-सुविधाएँ भी दी जाने लगी हैं। दोनों के खान-पान और रहन-सहन में भी आजादी दी जा रही है।
            उन घरों की लड़कियाँ उच्च शिक्षा ग्रहण करके उच्च पदों पर आसीन हैं। ज्ञान, विज्ञान, राजनीति, साहित्य, व्यापार आदि हर क्षेत्र में वह अग्रणी बन रही हैं। यही कारण है कि वे हर क्षेत्र अपने झण्डे गाढ़ रही हैं। भारत की पूर्व प्रधानमन्त्री  श्रीमति इन्दिरा गाधी और राष्ट्रपति श्रीमति प्रतिभा पाटिल से हम सभी परिचचित हैं। अपने क्षेत्र की आधुनिक सफल महिलाओं लता मंगेशकर, कल्पना चावला, इन्दिरा नूई आदि को भी नहीं भूल सकते।
          प्रश्न यह है कि ऐसे लोग कितने हैं जिनकी सोच का ऐसा विस्तृत दायरा है? मेरे विचार में इनका प्रतिशत आज भी बहुत कम है।
          बहुत से माता-पिता लड़के और लड़की के खाने-पीने, सोने-जागने, हँसने-खेलने आदि में भी अन्तर करते हैं। जो अच्छा, पौष्टिक व स्वास्थ्यवर्धक खाद्य हैं वे बेटे को दिए जाते हैं, बेटी को नहीं। इस कारण उनमें पौष्टिकता की कमी हो जाने से एनिमिया आदि कई रोग होते हैं।
          लड़का देर तक सोए और घर या बाहर का कोई भी काम न करे तब भी उसके लाड़ लड़ाए जाते हैं। दूसरी ओर लड़की से आशा की जाती है कि वह सवेरे उठकर घर के काम-काज में हाथ बटाए। हर खेल लड़का खेल सकता है और कितना भी समय वह घर से बाहर रह सकता है परन्तु लड़की के लिए यहाँ भी बन्धन रहता है। कुछ ही खेल खेलने की उसे आज्ञा मिलती है और घर से बाहर अधिक समय रहने की उसे आज्ञा नहीं मिलती। लड़की को जोर से बोलने अथवा हँसने पर यह कहकर टोक दिया जाता है कि उसे पराए घर जाना है। इसलिए उसका व्यवहार सदा संयमित होना चाहिए। लड़कों को यहाँ भी छूट दे दी जाती है।
         पैदा होने के बाद वह होश सम्भालती है तभी से उसे यह घुट्टी में पिलाया जाता है कि उसे अपने बाबुल का यह घर छोड़कर ससुराल जाना है। उसे घरेलू कार्यों, सिलाई, कढ़ाई, बुनाई आदि में दक्ष होना चाहिए। उसका ऊँचा बोलना, जिद करना आदि अनुचित कार्य हैं। उसे उच्च शिक्षा दिलाने में आज भी बहुत से माता-पिता आनाकानी करते हैं। बहुत से माता-पिता उसे नौकरी भी नहीं करने देते।
            वह अपने भाई के साथ बराबरी के व्यवहार की माँग नहीं कर सकती। दोनों यदि कहीं से आते है तो लड़की से ही अपेक्षा की जाती है कि आराम न करके भाई को चाय-पानी लाकर दे। वह नवाब बना खुद होकर पानी का गिलास भी न ले। ऐसे व्यवहार लड़की के मन को तार-तार कर देते हैं। उसे लगने लगता है कि सारे बन्धन उसी के लिए हैं। उसे क्यों लड़की का यह जन्म ईश्वर ने दिया है।
           धार्मिक स्थलों पर उसके प्रवेश का मुद्दा आजकल सुर्खियों में है जो बहुत ही गरमाया हुआ है। आज इक्कीसवीं सदी में हम जी रहे है। फिर भी यह बेटे और बेटी के लिए व्यवहार में यह भेदभाव समझ में नहीं आता जो कन्या भ्रूण को गर्भ में ही नष्ट करा देता है। संवैधानिक रूप से उसे माता-पिता की सम्पत्ति में अधिकार प्राप्त है। फिर भी प्राय: उसे वंचित रखा जाता है। बेटे को ही सब कुछ सौंप दिया जाता है चाहे वह उस योग्य हो या नहीं। यदि कोई बहन विरोध करे तो उसे तिरस्कृत किया जाता है।
         आज एकल परिवारों के चलते समय और परिस्थितियों की माँग है कि दोनों को ही घर-बाहर के कार्यों में दक्ष होना चाहिए। बिना पूर्वाग्रह के दोनों के लिए समानता का व्यवहार अपेक्षित है। बेटियों को यदि समान अवसर दिए जाएँ तो निस्सन्देह वे हर क्षेत्र में चमत्कार कर सकती हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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