शनिवार, 6 फ़रवरी 2016

दौलत की मृगतृष्णा

मनुष्य जीवन भर अपने खाने-पहनने की और अपनी स्वयं की सुध बिसराकर पैसे के पीछे दीवाना होकर भागता रहता है। वह भूल जाता है कि यह मृगतृष्णा उसे बस यहाँ-वहाँ भटकाती रहेगी और फिर कहीं का भी नहीं छोड़ेगी।
           मनुष्य इस विषय पर कभी विचार ही नहीं करना चाहता कि इस संसार में क्या यह धन-दौलत किसी की अपनी बन पाई है? यह उसे क्या-क्या दे सकती है? उसके बदले में उससे क्या-क्या छीनने में सफल हो सकती है?
          यह पैसा, यह धन-दौलत मनुष्य को मखमली बिस्तर दिलवा सकती है परन्तु प्रफुल्लतादायक अच्छी और गहरी नींद कभी नहीं दे सकती। इसी तरह यह दौलत भोजन तो दे सकती है पर भूख को दे पाना उसके बूते से बाहर है। व्यवहार में देखा जाए तो दौलत हमें पहनने के लिए अच्छे-से-अच्छे कपड़े खरीदकर दे सकती है परन्तु हमारे लिए सुन्दरता नहीं खरीद सकती। यह पैसा ऐशो-आराम के साधन दे सकता है परन्तु सुकून के दो पल हमारे लिए नहीं जुटा सकता।
           इसी प्रकार धन-दौलत जिस पर हम इतना गर्व करते हैं वह हमें अच्छी-से-अच्छी चिकित्सा सुविधाएँ दे सकती है परन्तु अच्छा स्वास्थ्य अथवा जीवन खरीदकर नहीं दे सकती। बच्चों को यह बिगाड़ सकती है, उन्हें हठी व मानी बना सकती है पर सन्तान को आज्ञाकारी नहीं बना पाती। यह मनुष्य को ऐशो-आराम क साधन दे सकती है परन्तु सुख-सौभाग्य नहीं दे सकती। उसकी पसन्द के नाते-रिश्तेदार देना उसके बस की बात नहीं। ईश्वर ने जो नाते-रिश्तेदार दे दिए सो दे दिए। किसी से प्यार अथवा किसी का विश्वास आदि कुछ भी तो नहीं दिला सकती। यह मनुष्य के घर कुव्यसनों का डेरा बना सकती है पर उसे सन्मार्ग पर चलाने के लिए उसका हाथ नहीं थामती। उसे गर्त में गिरते देखती रहती है परन्तु उसे सम्भलने के लिए प्रेरित नहीं करती। अत: इस पर इतना इतराना या मान करना उचित नहीं है।
           हम यह भी जानते हैं कि यह माया बहुत ही चंचल है, ठगिनी है। हमारे विवेक को भ्रमित कर देती है। यह दौलत भले-चंगे इन्सान को अपने जाल में फंसाकर उसे भ्रष्ट बना देती है। उसे अपनों से दूर अकेला कर देने का षडयन्त्र करती रहती है। जब वह अपने उद्देश्य में सफल हो जाती है तब धत्ता बताकर चल देती है।
         कहने का तात्पर्य यही है कि जब मनुष्य उसके मायाजाल में पूरी तरह उलझ जाता है तब उसे ठोकर मार देती है तथा इठलाते हुए शान से किसी और के पास चली जाती है। बेचारे मनुष्य को तो पता भी नहीं चलता और उसका सब कुछ लुट जाता है और वह नष्ट हो जाता है। वह कंगाल बनकर अपने दुर्भाग्य को कोसता रहता है। मनुष्य उसके हाथ की कठपुतली बना बस सोचता ही रह जाता है कि यह सब कैसे हो गया? क्यों हो गया?
            वह है कि मुस्कुराते हुए दूर खड़ी होकर उसकी इस बर्बादी का आनन्द लेती रहती है। पलक झपकते ही यह माया राजा को रंक बना देती है और रंक को राजा के सिंहासन पर विराजमान कर देती है।  इसके खेल बहुत निराले हैं जो आम आदमी की समझ से बाहर हैं।
            इसलिए सयाने कहते हैं कि पैसा हाथ का मैल है। इस पर गर्व नहीं करना चाहिए। किसी को कलम पकड़ाकर वारा न्यारा कर देती है। दूसरी ओर हाड़तोड़ मेहनत करने वाले से जीवन भर आँख मिचौली का खेल खेलती रहती है। इसकी आशा में संसार में आया हुआ मनुष्य अपने जीवन से हार जाता है।
          इस धन-दौलत पर घमण्ड न करके इसे देश, धर्म और समाज के हित के लिए खर्च करना चाहिए। घर-परिवार के सभी सदस्यो को भौतिक सुख-सुविधाएँ प्रदान करते हुए इसे परोपकार के कार्यों में लगा देना चाहिए। समय पर यथोचित दान देने में ही इस धन-दौलत की सार्थकता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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