रविवार, 7 फ़रवरी 2016

रिश्तों की अहमियत

रिश्तों की अहमियत समझने वाले जानते हैं कि वे कितने महत्त्वपूर्ण होते हैं। इन्सान हमेशा अपने भाई, बन्धुओं, सम्बन्धियों और मित्रों  के साथ ही सुशोभित होता है।
          सुख-दुख के समय मनुष्य के कन्धे-से-कन्धा मिलाकर खड़े होने वाले ये सभी आत्मीय जन उसके जीवन का बहुत बड़ा सम्बल होते हैं। इनका साथ किसी मनुष्य के लिए बहुत गौरव की बात होता है। उन्हीं के भरोसे वह कुछ भी कर गुजरने को तैयार हो जाता है।
             जीवन चलाने के लिए ये रिश्ते-नाते उसे ईश्वर की ओर से उपहार स्वरूप मिलते हैं जिन्हें वह किसी भी शर्त पर बदल नहीं सकता। वह चाहे या न चाहे उनका साथ निभाना उसका नैतिक दायित्व होता है। रिश्तों को 'मजबूरी में ढो रहे हैं' ऐसा कहना उन रिश्तों का अपमान करना ही कहलाता है। परमेश्वर को मनुष्य का यह व्यवहार कभी पसन्द नहीं आता। इसीलिए मनुष्य को अपनी मूर्खता से रिश्तों को खोने पर पीड़ित होना पड़ता है। 
            केवल मित्रों का चुनाव करने में हम स्वतन्त्र होते हैं। उनका चुनाव स्वयं अपने विवेक से उसे करना होता है। यदि मनुष्य गलत मित्रों का चुनाव करता है तो उसे उसके परिणाम स्वरूप दण्ड भोगना पड़ता है अर्थात् कष्टों का सामना करके व्यथित होना पड़ता है। यदि सौभाग्य से सुमित्रों के सम्पर्क में वह आ जाता है तो दुनिया का भाग्यशाली व्यक्ति बन जाता है।
           सृष्टि का नियम है- 'इस हाथ दो और उस हाथ लो' या 'जैसी करनी वैसी भरनी' अथवा 'जैसा बोओगे वैसा काटोगे।' इन सभी मुहावरों का यही अर्थ है कि मनुष्य जैसा व्यवहार दूसरों के साथ करता है, बदले में उसे वैसा ही मिलता है। यदि सबके साथ समानता, प्यार, विश्वास, भाईचारे अथवा सदाशयता का व्यवहार वह करता है तो उसे भी आजन्म सबसे प्यार और विश्वास मिलता है।
           सभी उसे अपना समझते हैं और उसके व्यवहार से किसी को कभी कोई शिकायत नहीं होती। इस प्रकार जीवन अपनी गति से और शान्ति से चलता रहता है।
           हर रिश्ते को मन की गहराई से निभाना चाहिए, केवल शब्दों से कह देने से रिश्ते नहीं निभते। कहने मात्र से रिश्ता दूर तक साथ नहीं दे पाता चाहे वह पति-पत्नि का हो या भाई-बहन का। माता-पिता की तो मजबूरी होती है कि वे अपने बच्चो को मरते समय तक नहीं छोड़ सकते, बशर्ते बच्चे उनके साथ स्वार्थ में अन्धे होकर अनुचित व्यवहार करते हुए बुरा न करें।
         जो लोग अपने धन, वैभव, ज्ञान आदि के झूठे अहं के शिकार हो जाते हैं, वे अपने जीवन में कभी रिश्तों की अहमियत नहीं समझ पाते। सबको अपने दुर्व्यवहार की ठोकर मारकर वे अपने से दूर कर देते हैं। एक आयु के पश्चात जब अकेलापन उन पर हावी होने लगता है तब वे सबको पानी पी-पीकर कोसते हैं और फिर परेशान होते रहते हैं।
           जो लोग अपने सम्बन्धियों के साथ मधुर सम्बन्ध रखते हैं, वे हमेशा ही प्रसन्न रहते हैं। जब कुटुम्ब या परिवार के सभी जन किसी अवसर विशेष पर एकत्रित होते हैं तो वहीं त्योहार जैसा आनन्ददायक वातावरण बन जाता है। मस्ती में झूमते वे दूसरों की ईर्ष्या का कारण भी बन जाते हैं। उस समय वे भी सोचते हैं कि काश उनके साथ भी इसी तरह सभी अपने होते।
            अपने परिवार में यदि एकता हो तो क्या मजाल है कि कोई टेढ़ी आँख से देखने का साहस कर सके। यदि कोई गलती से कोई ऐसा दुस्साहस करता है तो उसे कोई नहीं बचा सकता। तब तो फिर ईश्वर ही उसका मालिक बन सकता है।
         सभी रिश्ते बहुत ही संवेदनशील होते हैं। उन्हें उसी तरह से सहृदयता से निभाना चाहिए। रिश्तों की बुनियाद समानता और सामंजस्यता पूर्ण व्यवहार पर टिकी होती है। इसलिए रिश्तों का निर्वहण करने के लिए सावधानी बरतनी चाहिए जिससे उनकी गरिमा और गर्माहट बनी रहती है।
चन्द्र प्रभा सूद
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