शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2016

बच्चों को संस्कार

अपनी आने वाली नई पीढ़ी को संस्कारित करना हम सभी का दायित्व होता है। यदि सभी माता-पिता यह दायित्व पूरी तरह निभा पाएँ तो हमारी आने वाली पीढ़ी अपने सस्कारों को, अपनी मर्यादाओं को भली-भाँति समझेगी और उनका पालन अवश्य करेगी। आने वाली समझदार पीढ़ी कभी अपनी राह से नहीं भटकेगी।
           छोटे बच्चे गीली मिट्टी की तरह होते हैं, उन्हें जैसा आकार हम देना चाहेंगे वे वैसे ही बन जाएँगे। हम देखते हैं कि कुम्हार बड़ी ही लगन से गीली मिट्टी से मनचाहे रूप-रंग देकर अनेक सुन्दर वस्तुएँ गढ़ता है। उन्हें हम देखते हैं और उनकी प्रशंसा करते नही थकते। हम उनको खरीदकर अपने घर की शोभा बढ़ाते हैं। उसी तरह माता-पिता के संस्कारों का प्रभाव बच्चों के जीवन से प्रत्यक्ष झलकता है।
            किसान हल जोतकर खेत तैयार करणा है और उसमें बीज बोता है। उस खेत में यदि समय पर वर्षा न हो तो फसल तबाह हो जाती है। किसान का नुकसान तो उससे होता ही है और साथ ही देश में खाद्यान्न का अभाव भी हो जाता है।
           यदि बच्चों को समय रहते संस्कार न दिए जाएँ तो वे बिगड़ जाते हैं। इसलिए समाज उन माता-पिता का तिरस्कार करता है। ऐसे संस्कारहीन बच्चे भी अपने माता-पिता के लिए भी जीवन भर का अभिशाप बन जाते हैं। समाज में कभी उन्हें यथोचित सम्मान भी नहीं मिलता।
           अच्छे संस्कारों से वंचित रहने वाले बच्चे हठी, मनमानी करने वाले, उद्दण्ड और छोटे-बड़े किसी का लिहाज न करने वाले होते हैं। ऐसे बच्चों को कोई भी पसन्द नहीं करता। उनसे दोस्ती करना भी बुरा माना जाता है। अपने घर में भी उन्हें कोई बुलाना नहीं चाहता। इसका कारण लोगों के मन में एक डर रहता है कि वे उनके घर पर आकर तोड़फोड़ या उठापटक करेंगे। उसे अस्त-व्यस्त कर देंगे और मना करने पर वे सभी लोगों के साथ अभद्र व्यवहार करेंगे जिसका कुप्रभाव उनके अपने बच्चों पर पड़ सकता है।
           अपने बच्चों को सद्संस्कार देना हर माता-पिता का नैतिक कर्त्तव्य होता है। यदि अपने अहंकारवश अथवा आपसी वैमनस्य के कारण इस महत्त्वपूर्ण दायित्व को निभाने से वे चूक जाते हैं तो अपने और अपने बच्चों के दुर्भाग्य के लिए वे स्वयं ही जिम्मेदार कहलाते हैं।
           ऐसे माता-पिता अपने बच्चों का जीवन बरबाद करने के लिए वास्तव में उनके शत्रु कहलाते हैं। बड़े होकर बच्चे जब उन्हें दोष देते हैं तब उन्हें अपार कष्ट होता है। उस समय अपने उन ऐसे बच्चों को दोष देते रहना अथवा दुत्कारना समझदारी नहीं कहलाती। समय रहते यदि सावधानी बरती होती तो बाद में पश्चाताप करने की आवश्यकता न पड़ती।
           एक ही कार्य हो सकता है, चाहे तो बच्चों को संस्कारी बनाकर घर, परिवार, समाज और देश का सबल स्तम्भ बनाएँ अथवा अपने सुख-आराम को सर्वोपरि मानकर बच्चों संस्कार न देकर उनका भविष्य बिगाड़ दें। बच्चे चाहे कहें या न कहें पर घर में होने वाली सभी गतिविधियों को बड़ी बारीकी से देखते हैं। उन सबका असर भी बच्चों के कोमल मन पर गहराई से पड़ता है जिसका प्रभाव आजीवन रहता है। उसी के अनुरूप वे सबके बारे में अपनी राय बना लेते हैं।
         घर के सभी सदस्यों को छोटों और बड़ों के साथ मर्यादित व्यवहार करना चाहिए।
          संस्कार कोई ऐसा खिलौना नहीं है जिसे धन के मद में चूर माता-पिता बाजार से खरीदकर बच्चे को सौंप सकें। उसके लिए माता और पिता को कठिन तपस्या करनी पड़ती है। उन्हें तथा परिवार के अन्य सदस्यों को अपने आचार-व्यवहार की शुद्धता पर ध्यान देना पड़ता है, तब जाकर बच्चे संस्कारवान बनते हैं। बड़े होकर माता-पिता का नाम रौशन करते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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