बुधवार, 11 मई 2016

मनुष्य एक अवतार

हर मनुष्य में उस परमात्मा का अंश आत्मा के रूप में विद्यमान होता है। यहाँ समझने वाली बात यह है कि जब उसमें ईश्वर का अंश है तो वह ईश्वर स्वरूप ही होगा। बस उसे अपने अंतस् में विद्यमान इस ईश्वरीय शक्ति को पहचानना है।
          जब मनुष्य का जन्म इस धरा पर होता है तो उसे पृथ्वी पर अवतरित होना कहा जाता है। उसका यह अवतार रूप उसे ब्रह्माण्ड के अन्य सभी जीवों से अलग करता है। अवतार लेने के बाद उसे अपने चरित्र से दूसरों के सामने उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए। वह महापुरुषों के समान देवता भी बन सकता है और आतंकवादियों की भाँति दानव भी। वह मर्यादा पुरुषोततम राम भी बन सकता है और अहंकारी रावण भी। इसी प्रकार अपने जीवन के लिए मानक उसे स्वयं तय करने होंगे।
           जब मनुष्य एक इंसान के स्थान पर ईश्वर के रूप में अपना जीवन जीना प्रारम्भ करेगा तब इस संसार में और उसके जीवन में कोई उथल-पुथल नहीं होगी। वह शान्त व संयमी जीवन जी पाएगा। तब किसी जीव अथवा किसी पदार्थ की अवस्था और गतिविधि में भी कोई बदलाव नहीं आएगा। इन्सानी गुणों, क्षमताओं और कार्यों में कोई कतर-ब्यौंत नहीं होगी। जब मनुष्य अपने भीतर स्वयं ही ईश्वरीय गुणों को समझने लगेगा तब केवल एक चीज बदलेगी, वह है उसका दृष्टिकोण या नजरिया। उसके बदलते ही मनुष्य का जीवन सहज, सरल, निष्कपट हो जाएगा, वहाँ ईर्ष्या-द्वेष, मारकाट, दूसरों को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति आदि आसुरी भावनाएँ दूर हो जाएँगी। ईश्वर तथा इंसान के रूप में अपनी दोहरी भूमिका को मनुष्य बिना कष्ट के आसानी से निभा सकेगा।
        मनुष्य के मन में ईश्वर का वास होता है। इसीलिए मनीषी मन को मन्दिर बनाने पर बल देते हैं। जब हमारा मन मन्दिर बन जाएगा तब हमारा घर स्वयं ही तीर्थस्थल कहलाएगा। उस घर मे रहने वाले स्वर्ग के समान शान्ति का अनुभव करेंगे। उस घर के पास से गुजरने वालों को भी सुगन्धित बयार का झौंका प्रफुल्लित करेगा।
             ईश्वर तीर्थों, जंगलों, पर्वतों की गुफाओं में भटकने से नहीं मिलता बल्कि अपने घर में रहकर सांसारिक दायित्वों को निभाते हुए मिलता है। दुनिया के दुख-कष्टों से भागकर भगवा चोला पहनने वाले भगोड़ों अथवा तथाकथित गुरुओं को तो वह कदापि नहीं मिलता।
           गुरुडम फैलाने वाले गुरु सवालों-जबावों के चक्कर में अपने अनुयायियों को उलझाये रखते हैं। ये गुरु अलग-अलग सवालों के अलग-अलग उत्तर बताते हैं लेकिन सारे सवालों को हल करने का एक सूत्र कभी नहीं बता सकते। यदि वे ऐसा करेंगे तो उनकी रोजी-रोटी कैसे चलेगी? वे तो बस भ्रमजाल फैलाए रखना चाहते हैं। दूसरों को अपरिग्रह का पाठ पढ़ाने वाले धन-सम्पत्तियों का संग्रह करते रहते हैं। अपने चरित्रों से अनुयायियों को प्रभावित नहीं कर पाते। इसलिए अपने वजूद को बचाने के लिए वे संघर्ष करते रहते हैं।
          मनुष्य को स्वयं ही अपनी खोज करनी होगी कि वह ईश्वर तुल्य आचरण किस प्रकार कर सकता है? अपने अतस् में इन गुणों को प्रकाशित करने लिए उसे सबसे पहले उसे संयमित आचरण करना होगा। फिर अपने अंतस् में ध्यान लगाकर  ईश्वर रूपी प्रकाश को पाने का यत्न करना होगा। इस सम्पूर्ण साधना के लिए उसे ईश्वर की आराधना और सद् ग्रन्थों का स्वाध्याय करना बहुत आवश्यक है।
           यदि मनुष्य केवल सच्चाई और ईमानदारी से अपने दायित्वों का निर्वहण करता हुआ ईश्वरीय शक्ति को अपने अंतस् में अनुभव करने लगे, तब भी वह उस प्रभु के गुणों अपने भीतर महसूस कर सकता है। विचारों की शुद्धता और सच्चरित्रता से ईश्वरत्व के गुण मनुष्य में स्वाभाविक रूप से आ जाते हैँ।
चन्द्र प्रभा सूद
Twitter : http//tco/86whejp

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें