रविवार, 22 मई 2016

माँ प्रथम गुरु

माता मनुष्य की प्रथम गुरु कहलाती है। वह बच्चे को सर्वप्रथम अक्षरज्ञान देती है। उसका अपनी सन्तान से रिश्ता अन्य सभी रिश्तों से नौ माह अधिक होता है। इस धरती पर लाने के कारण उसे भगवान का रूप कहा जाता है।
           बच्चे का लालन-पालन वह बहुत ही ममता और प्यार से करती है। स्वयं गीले में सो जाती है परन्तु बच्चे को सदा सूखे में सुलाती है। अपना सारा सुख और आराम बच्चे के लिए कुर्बान कर देती है। उसकी ममता के समक्ष दुनिया के सभी सुख फीके पड़ जाते हैं।
         उसके चरणों में ही मनीषियों ने स्वर्ग की अवधारणा की है। इसीलिए वे कहते हैं कि मनुष्य आयुपर्यन्त उसकी सेवा करने के उपरान्त भी उसके ऋण से उऋण नहीं हो सकता। जब वह अशक्त हो जाए तब बच्चे की तरह उसकी देखभाल करनी चाहिए। उसके खान-पान और स्वास्थ्य का ध्यान रखना चाहिए।
         स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी के जीवन की एक घटना है कि एक नवयुवक उनका शिष्य बनने की इच्छा से उनके पास आया और उनके चरणों में गिर गया। अपना शिष्य बनाकर, दीक्षा देने के लिए उनसे प्रार्थना करने लगा।
          युवक की बात सुनकर परमहंस जी ने मुस्कुराकर उससे पूछा कि परिवार में उसके अतिरिक्त और कौन-कौन लोग हैं? अथवा क्या वह अकेला ही है?
          उनका प्रश्न सुनकर युवक ने  उत्तर दिया कि उसके घर में सिर्फ उसकी बूढी माँ है और कोई नहीं है। युवक के उत्तर को सुनकर परमहंस जी को क्रोध आया। परन्तु अपने क्रोध को पीकर उन्होंने उससे साधु बनने का कारण पूछा।
         युवक ने कहा कि वह मोह-माया और ऊँच-नीच से युक्त संसार को छोड़कर मुक्ति पाना चाहता है। इस उत्तर को सुनकर परमहंस जी ने उसे समझाते हुए कहा कि अपनी बूढ़ी माँ को असहाय छोड़कर तुम्हें कभी मुक्ति नहीं मिल सकती। सच्ची मुक्ति तुम्हें माँ की सेवा करने से मिलेगी, जाओ उसकी सेवा करो। मानव जीवन का यही सार है।
         विद्याध्ययन करने के पश्चात नव जीवन में प्रवेश करने वाले युवा शिष्य को आचार्य शिक्षा यही देते हैं- 'मातृ देवो भव।' अर्थात माँ ईश्वर का रूप होती है, वही सबसे बड़ा देवता है। माता के प्रति अपने सारे दायित्वों का निर्वहण प्रसन्नता पूर्वक करने चाहिए।
         माता को जीवन में कष्ट न हो, उसके सुख-साधन का ध्यान रखना ही मनुष्य की सबसे बड़ी साधना है। मन्दिर मे जाकर पत्थर की मूर्तियों के सामने माथा रगड़ने के स्थान पर यदि घर में बैठी जीवित माँ रूपी भगवान की पूजा की जाए तो अधिक उपयुक्त होगा। सारे रिश्ते-नाते और बन्धु-बान्धव मनुष्य को मझधार में छोड़ सकते हैं परन्तु ममता की छाया से वह कभी वंचित नहीं हो सकता। वहाँ आकर जो स्वर्गिक आनन्द उसे मिलता है वह अन्यत्र नहीं मिल सकता। इसीलिए सयाने कहते हैं-
'माँवा ठण्डियाँ छावाँ कि छाँवा कौन करे?'
अर्थात् माँ शीतल छाया की भाँति होती है। उसके अलावा और कहीं से इन्सान को ठण्डी छाया नहीं मिल सकती।
          इसका सबसे बड़ा कारण है कि पुत्र कुपुत्र बन सकता है पर माता कुमाता नहीं हो सकती। आवश्यकता होने पर वह अपने बच्चों की बुराइयों पर भी पर्दा डाल देती है। दुनिया की नजरों में उसे हमेशा ऊँचा उठा हुआ देखना चाहती है। सबसे बढ़कर वह सन्तान को गरम हवा भी नहीं लगने देना चाहती। एक बात मैं यहाँ जोड़ना चाहती हूँ कि इन्सान कितना भी बूढ़ा हो जाए और उसकी माता इस दुनिया से विदा ले चुकी हो, जब भी उसे कष्ट होता है अथवा वह थक-हार जाता है तब 'हाय माँ' ही कहता है। उसके मुँह में किसी अन्य सम्बन्ध का नाम नहीं निकलता।
          उसका वश चले तो अपने बच्चों के सारे दुख स्वयं झेल ले। इन्सान को दुनिया से चाहे दुत्कार मिले लेकिन माता के लिए वह सबसे श्रेष्ठ होता है। वह कभी अपनी सन्तान को अपमानित होते हुए नहीं देख सकती। सन्तान को यदि कष्ट होता है तो उसका कलेजा छलनी हो जाता है। माता के अतिरिक्त ऐसा निस्वार्थ प्रेम किसी और रिश्ते में नहीं मिल सकता। उसकी सेवा करने से चारों धामों की यात्रा के पुण्य का फल मिलता है तथा मनुष्य का इहलोक व परलोक दोनों सुधर जाते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
Twitter : http//tco/86whejp

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपका आलेख बहुत अच्छा लगा। मां की भी याद आई और दुर्गा मां की भी। दुर्गा पूजा के लिए एक लेख में आपकी कुछ सामग्री का आपके नाम सहित प्रयोग कर रहा हूं।
    सादर
    डॉ राजीव कुमार रावत
    हिंदी अधिकारी
    आईआईटी खड़गपुर
    9564156315

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  2. माँ के बारे मे जो आपने लिखा सच मे दिल छू लिया

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