शुक्रवार, 13 मई 2016

सामाजिक व्यवस्था का आधार परिवार

महान भारतीय संस्कृति की सामाजिक व्यवस्था का आधार परिवार है। परिवार को एकसूत्र में बाँधकर रखना एक कुशल गृहिणी बखूबी जानती और समझती है। घर को स्वर्ग बनाने के लिए एक स्त्री अकेले ही समर्थ है, उसे किसी अन्य सहारे की आवश्यकता नहीं होती। वह सदा अपनी सूझबूझ से घर-गृहस्थी की समस्याओं का निदान करके परिवार में समरसता का माहौल बना सकती है।
          इसीलिए ऐसी व्यवहार कुशल गृहिणी की प्रशस्ति में शास्त्रों में बहुत कुछ कहा गया है। 'गृहिणी गृहमुच्यते' अर्थात् गृहिणी ही घर है कहकर उसके महत्त्व को प्रतिपादित किया गया है। पुरुष से भी अधिक मान उसे इसीलिए दिया गया कि वह परिवार का केन्द्रबिन्दु यानि धुरी होती है। सबको यथोचित सम्मान देना, सबके साथ वर्तना या व्यवहार करने में उसका कोई सानी नहीं होता वह अतिथियों और देवों का यथोचित सम्मान करके अपने घर-परिवार को सुरभित करती है। ऐसे घरों में ईश्वरीय अनुकम्पा की वर्षा सदा ही होती रहती है।
         कहते हैं कि एक माला बनाने के लिए बहुत से मनकों की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार एक आरती को सजाने के लिए भी अनेक दीपक चाहिए होते हैं। एक खाली समुद्र को भरने के लिए हजारों बूँद जल की आवश्यकता होती है। परन्तु इन सबसे बढ़कर कठिन कार्य यानि घर को संचालित करने का कार्य एक स्त्री बहुत ही खूबसूरती से निभा लेती है। यहाँ अनेक की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती।
          ओशो रजनीश ने अपनी पुस्तक 'शिक्षा में क्रान्ति' में लिखा है कि ‘स्त्री के जीवन में यदि कोई चीज सक्रिय हो जाती है तो एक परिवार के प्राणों में परिवर्तन आना शुरू हो जाता है। एक स्त्री को बदल लेना पचास पुरुषों को बदलने के बराबर होता है। इतनी बड़ी शक्ति जिनके  हाथ में हो, इतनी बड़ी सामर्थ्य जिनके हाथ मे हो, अगर जीवन के लिए कुछ भी नहीं करती तो निश्चित ही अपराधी है।’
           इस कथन का वास्तव में यही अर्थ है कि यदि स्त्री अपनी शक्ति को विस्मृत करती है और अपने दायित्वों का निर्वहण नहीं करती तो वह बहुत बड़ा अपराध करती है। उसके कन्धों पर घर-परिवार का महान् दायित्व है।
          संस्कार देकर वह भावी पीढ़ियों का निर्माण करती है जो राष्ट्र की धरोहर हैं। यदि हमारा युवावर्ग उच्छ्रँखल और दिशाहीन होगा तो उसका दोष घर की स्त्री का होता है। यदि नींव ही कमजोर रह जाएगी तो निर्माण कार्य ठीक नहीं होगा। इसी प्रकार यदि नव पीढ़ी को संस्कार नहीं दिए गए तो देश, धर्म और समाज की रक्षा नहीं हो सकेगी। एवंविध इसके दूरगामी परिणाम हम सबको भुगतने पड़ेंगे।
            संस्कृत भाषा और हिन्दी भाषा में पवित्र विवाह सम्बन्ध का विच्छेद करने के लिए कोई शब्द नहीं है। विवाहोपरान्त अपने जीवन साथी का त्याग करने के लिए पहला Divorce शब्द अंग्रेजी भाषा में है जिसे ईसाई धर्मानुयायियों द्वारा प्रयुक्त किया जाता है। दूसरा 'तलाक' शब्द उर्दू भाषा में इस्लाम मतावलम्बियों द्वारा प्रयोग किया जाता है।
             हमारी महान् भारतीय हिन्दू सभ्यता में ऐसी परिकल्पना ही नहीं की गई कि विवाह के पश्चात दोनों जीवन साथियों में अलगाव हो। यहाँ यह पवित्र बन्धन सात जन्मों के लिए माना जाता है। हमारा धर्म केवल एक होना या जोड़ना सिखाता है अलग करना नहीं।
          भारतीय वैवाहिक संस्था विवाह के समय सप्तपदी के समय एक-दूसरे को दिए गए वचनों को निभाने पर बल देता है। पति-पत्नी दोनों का यह बराबर का दायित्व बनता है कि वे अपने पूर्वाग्रहों और झूठे अहं का त्याग करके सामञ्जस्य पूर्वक अपनी गृहस्थी की गाड़ी को बाधारहित चलाएँ और आदर्श स्थापित करें।
चन्द्र प्रभा सूद
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