शुक्रवार, 13 अप्रैल 2018

रिश्तों की अहमियत

बन्धु-बान्धवों, घर-परिवार के किसी सदस्य या पति-पत्नी में से किसी से भी झगड़ा हो सकता है अथवा अनबन हो सकती है। इसमें कुछ भी नया नहीं है, यह स्वाभाविक है। घर में रखे हुए चार बर्तन भी यदा कदा खड़क ही जाते हैं। तकरार वहीं पर होती है जहाँ अपनापन होता है, प्यार होता है। दूसरा कोई किसी की बात नहीं सुनता। पूरा संसार बसता है पर हर किसी से मनुष्य झगड़ा नहीं कर सकता और न ही कोई सहन कर सकता है। अपने मन की बात भी तो अपनों से ही की जाती है। मनुष्य की अपने प्रियजन से ही तकरार होती है और उसी से मान-मनौव्वल भी होती है। सही मायने में इस मीठी नोंकझोंक में जीवन का आनन्द छिपा रहता है।
         यदि यह तनातनी या झगड़ा जब अपनी सीमा पार कर जाता है अथवा लम्बे समय तक चलता है तब मनुष्य के मन में अहं घर कर लेता हैं जो सारी बुराइयों की जड़ है। वह किसी भी शर्त पर झुकने के लिए तैयार नहीं होता। इससे मन में गाँठें बन जाती हैं। प्रायः एक सामान्य-सी दिखने वाली यह परिस्थिति धीरे-धीरे वृहद रूप ले लेती है। मनुष्य अपने प्रियजनों को स्वयं से दूर कर लेता है। समय बीतते-बीतते उनके बीच अबोलापन घर करने लग जाता है जो स्वस्थ सम्बन्धों में बुलडोजर का कार्य करता है। उन रिश्तों को वह अनजाने में ही बरबाद करके छोड़ता है। उस समय मनुष्य हक्का-बक्का रह जाता है। उसे समझ ही नहीं आता कि आखिर हुआ क्या है?
          वे रिश्ते जो मनुष्य से सदा के लिए रूठ जाते हैं उनका पुनः मिलना बहुत कठिन हो जाता है। कुछ परिस्थितियाँ ऐसी बन जाती हैं जो उसकी सामर्थ्य से बाहर हो जाती हैं। कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं जिनसे नाराज होकर अथवा उनकी ओर मनुष्य पीठ मोड़कर मनुष्य नहीं बैठ सकता। उनका उसके साथ होना बहुत ही आवश्यक होता है। उनके न रहने की स्थिति में घर-परिवार टूटने की कगार पर आ जाता है या बिखरने लगता है। ऐसे रिश्तों को अपने झूठे अहं का त्याग करके, यदि झुककर भी मानना पड़े, तो मना लेने में ही समझदारी कही जाती है। इसमें हेठी जैसी कोई बात नहीं होती और न ही नाक नीची होती है। इन सम्बन्धों को मनुष्य को यत्नपूर्वक सहेजना चाहिए।
        जिस प्रकार खेती करते समय बहुत-सी खरपतवार अपने आप ही फसल के आसपास उगने लगती है उसी प्रकार सांसारिक सम्बन्धों में अनावश्यक रिश्ते जन्म लेने लगते हैं। वे पीठ में छुरा भौंकने वाले शत्रु भी हो सकते हैं और स्वार्थी मित्र भी। किसान उन खरपतवारों को चुन-चुनकर बाहर निकलकर फैंक देता है। उस किसान की तरह मनुष्य को भी इन सब रिश्तों की पहचान करके, उन्हें स्वयं के जीवन से निकालकर दूर कर देना चाहिए। इस तरह वह आस्तीन के साँपों से छुटकारा पा सकता है। और जीवन में धोखा खाने से भी बच जाता है। फिर उसके बाद उसे जीवन में कभी पछताना भी नहीं पड़ता।
           यदि मनुष्य सावधान नहीं रहता, उससे जरा-चूक हो जाती है तो धीरे-धीरे उसके रिश्तों में पहले जैसी गर्माहट नहीं रह पाती। फिर समय बीतते उसका अपनापन, उसकी कशिश और उसका चिरपरिचित दोस्ताना समाप्त होने लगता है। इसके लिए वह किसी को भी दोष दे सकता है। परन्तु उसके लिए इतना समझना आवश्यक है कि ताली एक हाथ से नहीं दोनों हाथों से बजाई जाती है। दोनों ओर से अनजाने में ही कुछ-न-कुछ गलतियाँ हो गई होती हैं जो अन्ततः नासूर का रूप ले लेती हैं।
         ईश्वर हमें हमारे जन्म के साथ कुछ रिश्तों को जोड़ देता है। चाहकर भी उनसे छुटकारा पाना सम्भव नहीं होता। उनसे किनारा करने का अर्थ होता है कि एक टीस-सी मैन के किसी कोने में छुपी रहती है। वह समय-समय पर दंश देती रहती है। इसलिए रिश्तों की अहमियत समझते हुए उनसे मेल-मिलाप बनाए रखना चाहिए। यही मनुष्य जीवन की सफलता का रहस्य है।          
चन्द्र प्रभा सूद
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