सोमवार, 23 अप्रैल 2018

मूर्ख से दूरी

बुद्धिमान को मूर्ख मनुष्य से यथासम्भव दूरी बनाकर रखनी चाहिए। मूर्ख को ज्ञात ही नहीं होता कि उसे क्या करना चाहिए और क्या नहीं? वह अपनी बुद्धि का सकारात्मक उपयोग न करके नकारात्मक प्रयोग करता है। यदि वह विचार करके अपने कार्य कर ले तो उसे स्वयं ही समझ आ जाएगा कि कहाँ पर उससे चूक हो रही है। फिर वह अपनी भूल का यथाशीघ्र सुधार कर सकता है। समस्या तो यही होती है कि उसे स्वयं पर नियन्त्रण ही नहीं होता। इस कारण वह अपना और अपने हितैषियों का अनजाने ही अहित कर बैठता है।
          आचार्य चाणक्य मूर्ख व्यक्ति के विषय में तर्कपूर्ण कहते हैं-
मूर्खस्तु  परिहर्तव्यः  प्रत्यक्षो   द्विपदः  पशुः।                                                                                            भिनत्ति वाक्यशल्येन निर्दृशाः कण्टका यथा।।                                                                                                                                                                   
अर्थात मूर्ख को त्याग देना उचित है क्योंकि वह दो पैरों वाला पशु है। उसमें काँटें दिखायी तो नहीं पड़ते पर वह वाक्य रूपी शल्य से बार-बार  काँटे बोता रहता है।  
          आचार्य चाणक्य ने मूर्ख के विषय में बहुत अच्छा विश्लेषण किया है। मूर्ख व्यक्ति मनुष्य होते हुए भी पशु है। वह चार पैर वाला न सही पर दो पैर वाला पशु है। वह अनर्गल प्रलाप करता रहता है। उसे अपनी वाणी पर नियन्त्रण नहीं होता। इसलिए वह ऐसे शब्दों अथवा वाक्यों का प्रयोग कर बैठता है जो सामने वाले के हृदय में काँटे की तरह गढ़ जाते हैं। उस फाँस को निकालने में वर्षों बीत जाते हैं। इस प्रकार वह मूर्ख दूसरों को व्यथित करता रहता है।
         बार-बार दूसरों पर शब्दों के विषैले बाण चलाने वाले मनुष्य को कोई भी क्योंकर पसन्द करेगा। उसकी बेलगाम बातों से कोई भी व्यक्ति आहत होना नहीं चाहेगा। फिर वह कोई अपना प्रिय बन्धु-बान्धव हो या अप्रिय शत्रु। उसके माता-पिता, भाई-बहन, अपने बच्चे व उसकी पत्नी तक उसके व्यवहार से नाखुश रहते हैं। समाज में हो रही उसकी इस आलोचना से वे व्यथित होते रहते हैं परन्तु अपनी विवशता के कारण वे कुछ कर नहीं पाते।
         उसे कभी अपनी गलती का अहसास ही नहीं होता। उसकी प्रकृति ही ऐसी हो जाती है कि उसे दूसरों को चोट पहुँचाकर आनन्द की अनुभूति होती है। वह बस उठा-पटक में ही लगा रहता है और अपना समय बर्बाद करता रहता है। वह अपनी इस नकारात्मक सोच में मानो महारत हासिल करके स्वयं पर इतराता है। धीरे-धीरे ऐसे व्यक्ति से लोग किनारा करने लगते हैं और फिर वह अकेला पड़ने लगता है। इसका कारण है कि मनुष्य एक बार उसके अनुचित व्यवहार के लिए उसे क्षमा कर देगा अथवा दूसरी बार माफ कर देगा। कोई भी मनुष्य बार-बार अपनी अवमानना को सहन नहीं कर सकता। यह मानवीय प्रवृत्ति है और सत्य भी है।
          कभी-न-कभी तो ऐसे मनुष्य के लिए इस प्रकार का कठोर कदम उठाना ही पड़ता है और उसे पाठ पढ़ाना पड़ता है। यह उसके लिए बहुत आवश्यक होता है। फिर भी यदि उसके भेजे में खुराफातें करने का भूत सवार हो तो उसका सामाजिक रूप से बहिष्कार कर देना चाहिए। ऐसे मूर्ख का होना या न होना किसी के लिए कोई मायने नहीं रखता। इसीलिए मनीषी कहते हैं-
                मूर्ख मित्र से शत्रु अच्छा।
यानी शत्रु का तो पता होता है कि वह शत्रुता निभाएगा, वार भी करेगा। मूर्ख मित्र का कोई भरोसा नहीं होता कि वह कब घात कर बैठे। इसलिए उससे यथासम्भव दूरी बनाकर रखने में ही समझदारी है।   
चन्द्र प्रभा सूद
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