शनिवार, 14 अप्रैल 2018

जाने वाले नहीं लौटते

लड़ना-झगड़ना, रूठना-मानना, ईर्ष्या-द्वेष, क्रोध आदि के ये सब रिश्ते जीते-जागते हुए मनुष्य के साथ ही निभाए जा सकते हैं। जब आँख मूँद जाती है तब सब रिश्ते-नाते यहीं इसी धरा पर ही समाप्त हो जाते हैं। श्मशान तक ही सभी बन्धु-बान्धवों का सम्बन्ध होता है। उसके बाद की यात्रा जीव को अकेले ही करनी पड़ती है। उस समय लोग उस जाने वाले की अच्छाइयों का ही जिक्र करते हैं। उसकी बुराई को यदि करते भी हैं तो अपने कानों को छू लेते हैं। बड़े-बुजुर्ग समझाते हैं कि जाने वाले की अच्छाइयों को याद करना चाहिए।
           एक दिन जब मनुष्य अपनों से जुदा हो जाता है तो न जाने कहाँ खो जाता है? किस दुनिया में चला जाता है? देखते-ही-देखते सबको रोता-बिलखता छोड़कर क्यों निर्मोह हो जाता है?
          उस समय उसे लाख पुकार लो, उसके पास किसी की आवाज नहीं पहुँचती। वह कभी लौटकर वापिस नहीं आता। अपने प्रियजनों को सान्त्वना देने के लिए अपने हाथ को आगे नहीं बढ़ाता। दिनभर के कामों से थक-हारकर जब घर का कोई सदस्य रात को सोने जाता है तब उसकी याद आह बनकर सताती है। अनायास ही अश्रु गंगा-यमुना की तरह आँखों से बहने लगते हैं।
        उस समय बार-बार ऐसा लगता है कि अभी फोन की घण्टी बज उठेगी और अपने प्रियजन का फोन आएगा। अभी दरवाजे पर खटखट होगी और वह प्यारा घर लौट आएगा। ऐसा प्रतीत होता है मानो वह कुछ दिनों के लिए कहीं घूमने गया हुआ है और शीघ्र ही लौटकर आ जाएगा। उस समय कुछ दिन तक बस कान बजते रहते हैं पर कोई फोन या सन्देश नहीं आता। उस समय उसकी बहुत याद आती है पर वही प्रियजन नहीं आता। ऐसा प्रतीत होता है मानो हमारा प्रिय बन्धु हमसे रूठकर चला गया है। उस समय कितनी ही मनुहार कर लो वह जाने वाला न आँखें खोलता है और न ही बात करता है। आखिर उस दिन घर-परिवार के लोग और दोस्त प्रियजन को खोकर हताश और निराश हो जाते हैं।
          कबीरदास जी की लिखी हुई ये पंक्तियाँ सदा स्मरण आती हैं-
      चलती चक्की देखकर दिया कबीर रोय।
     दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय।।
अर्थात धरती और आकाश के बीच में रहते हुए कोई भी जीव काल का ग्रास बनने से बच नहीं सकता।
कबीर जी कहते हैं कि मृत्यु अवश्यम्भावी है। उससे कोई नहीं बच सकता, चाहे कोई बड़ा हो या छोटा। कितना भी यत्न मनुष्य क्यों न कर ले, उसे जाना ही होता है।
          यदि किसी का सम्मान करना चाहते हैं तो बिना समय व्यर्थ गँवाए शीघ्र ही जीते जी कर लेना चाहिए। इस शरीर से जब आत्मा निकल जाती है, उस समय यानी मरने के बाद तो पराए भी रो देते हैं। आज शरीर में प्राण हैं तो सब बढ़िया है पर देखते-ही-देखते ये प्राण उड़नछू हो जाते हैं तब सभी आत्मीयजन कफन हटा-हटा कर उसके अन्तिम दर्शन के लिए उतावले हो जाते हैं। इसका अर्थ यही होता है कि जाने वाला प्रियजन अब सबसे विदा लेकर, अपने नए संसार मे जाने वाला है। वह पुनः इस रूप में अब कभी आकर नहीं मिल सकेगा।
         अवसर मिल सके या न मिले पर समय निकालकर अपने बन्धु-बान्धवों से बेशक फोन पर ही बातचीत कर लेनी चाहिए। जब अपने साथ छोड़कर दूर-बहुत दूर चले जाते हैं तो दिल का कोई एक कोना रीता-सा रह जाता है, जो समय-समय पर दंश देता रहता है। अपनों से कितनी भी मनमुटाव की स्थिति क्यों न बने, क्षमायाचना करके सम्बन्ध मधुर बना लेने चाहिए। पता नहीं कौन पहले चला जाएगा और कौन पीछे छूट जाएगा। यदि अपने ही साथ न रहेंगे तो सुख-दुख किसके साथ साझा किए जाएँगे? अपने मन में किसी बात का घमण्ड नहीं करना चाहिए। आज इन्सान मिट्टी को रौंद रहा है तो कल मिट्टी उसे रौंदती है-
     माटी कहे कुम्हार से तू क्या रौंदे मोहे।
     एक दिन ऐसा आएगा मैं रौंदूँगी तोहै।।
         आज के यह लेख मैं बाबा फरीद की इस सुपरिचित दार्शनिक कविता से करना चाहूँगी-
         वेख फरीदा मिट्टी खुली
         मिट्टी उत्ते मिट्टी डुली
         मिट्टी हस्से मिट्टी रोवे
        अंत मिट्टी दा मिट्टी होवे
        न कर बंदेया मेरी मेरी
        न एह तेरी न एह मेरी
        चार दिनां दा मेला दुनिया
        फेर मिट्टी दी बन गई ढेरी
        न कर एत्थे हेरा फेरी
        मिट्टी नाल न धोखा कर तू
        तू वी मिट्टी ओ वी मिट्टी
        जात पात दी गल्ल न कर तू
        जात वी मिट्टी पात वी मिट्टी
        जात सिर्फ खुदा दी उच्च   
        बाकी सब कुछ मिट्टी मिट्टी।
चन्द्र प्रभा सूद
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