गुरुवार, 19 अप्रैल 2018

व्रत पालन सज्जनों का स्वभाव

नीतिपूर्वक जीवन व्यतीत करने में मनुष्य को कभी हिचकिचाना नहीं चाहिए। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि देश, धर्म, समाज और परिवार द्वारा निर्धारित कार्यों को करना ही नीति का पालन करना कहलाता है। ये नीतियाँ हमारे शास्त्रों का ही विधान होती हैं। मनुष्य को सदा ऐसे कार्य करने चाहिए जिससे वह समाज में सिर उठाकर चल सके। महापुरुष तलवार की धार जैसे कठोर मार्ग पर प्रसन्नतापूर्वक स्वेच्छा से चलते हैं। इसीलिए जिस मार्ग पर वे चलते हैं वह पथ आगामी पीढ़ियों के लिए अनुकरणीय बन जाता है।
           'नीतिशतकम्' के इस श्लोक में भर्तृहरि जी ने कहा है-
       असन्तो नाभ्यर्थ्याः सुहृदपिध न याच्यः कृशधनः
       प्रिया न्याय्या वृत्तिर्मलिनमसुभङ्गेऽप्यसुकरम्।।
       विपद्युच्चैः स्थेयं पदमनुविधेयं च महताम्।
       सतां केनोद्दिष्टं विषममसिधाराव्रतमिदम्।।
अर्थात दुर्जनों से प्रार्थना या याचना नहीं करनी चाहिए, निर्धन या धन से कमजोर सज्जन मित्र से आर्थिक सहायता की आशा नहीं करनी चाहिए। न्यायपूर्वक जीवन व्यतीत करने में अभिरुचि रखनी चाहिए। जान जाने का भय होने पर भी गलत काम में संलिप्त नहीं होना चाहिए। विपत्तिकाल में धैर्य रखना चाहिए तथा महान लोगों के दिखाए गए रास्ते पर चलना चाहिए। इस प्रकार तलवार की धार पर चलने जैसे कठोर मार्ग को अपनाकर जीवन व्यतीत करने वाले महापुरुषों को कोई उपदेश नहीं देता। फिर भी सज्जन पुरुष स्वभाव से ही इनका पालन करते हैं।
         इस श्लोक में कवि भर्तृहरि ने बहुत-सी मानवोपयोगी बातों पर प्रकाश डाला है। सबसे पहले उन्होंने कहा है कि दुर्जनों से कभी भी सहायता की याचना नहीं करनी चाहिए। इसका कारण है कि उनके द्वारा की गई सहायता के बदले मनुष्य को बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। वे किसी की सहायता बिना स्वार्थ के नहीं करते। सज्जन यदि की गई किसी प्रार्थना को ठुकरा दें तो बुरा नहीं मानना चाहिए, क्योंकि वे हितचिन्तक होते हैं। उनका अपना कोई स्वार्थ नहीं होता परन्तु दुर्जनों स्वार्थ के लिए ही अपना सम्पर्क साधते हैं।
          तत्पश्चात वे कहते हैं कि निर्धन अथवा धनहीन सज्जन मित्र से आर्थिक सहायता की आशा नहीं करनी चाहिए। इसका कारण है कि वे सहायता करना तो चाहते हैं पर विवश हैं। ऐसे सज्जनों से याचना करके उन्हें शर्मसार नहीं करना चाहिए। यदि उनकी स्थिति अच्छी होती तो वे बिना कहे अपने मित्र की सहायता कर देते। वे यदि सहायता नहीं भी कर सकेंगे तो दूसरों के समक्ष कभी मित्र की आलोचना भी नहीं करेंगे।
           मनुष्य को सदा ही न्यायपूर्वक जीवन व्यतीत करना चाहिए। यदि कभी जान जाने की स्थिति बन जाए तब भी कुमार्ग की ओर नहीं जाना चाहिए। मनुष्य को यह सोचना चाहिए कि जीवन-मरण इस शरीर का धर्म है। इस जीवन को एक दिन मृत्यु का सामना तो करना ही है, फिर उससे किसलए डरना? इस प्रकार जब मृत्यु का डर उसके मन में नहीं रहेगा तो वह कभी भयभीत नहीं होगा। मनुष्य को हर दिन जीवन का अन्तिम दिन मानकर ही चलना चाहिए।
          विपरीत स्थिति का जब भी जीवन में सामना करना पड़े तो उसे धैर्य का दामन नहीं छोड़ना चाहिए। हर समय हाय तौबा नहीं करनी चाहिए। महान लोगों के दिखाए गए मार्ग पर उसे चलना चाहिए। अपने सद् ग्रन्थों का उसे स्वाध्याय करना चाहिए। ईश्वर की उपासना करनी चाहिए। इस प्रकार करने से कष्ट सहने की सामर्थ्य बढ़ती है। मनुष्य सन्मार्ग का त्याग करके कुमार्ग की ओर अग्रसर नहीं होता। वह अपने कर्त्तव्य मार्ग पर चलता हुआ आगे बढ़ता रहता है।
           इस प्रकार कठोर व्रत का पालन करना महान लोगों को कोई नहीं सिखाता। यह सब उनके स्वभाव की ही विशेषता होती है जो उन्हें कभी कुमार्गगामी नहीं बनाती। इनके जीवन से मनुष्य को सदा प्रेरणा लेनी चाहिए। ऐसे ही महानुभाव आगामी पीढ़ियों के पथप्रदर्शक बनते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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