मंगलवार, 24 अप्रैल 2018

दोहरा चरित्र

मनुष्य को शरीर एक साधन के रूप में ईश्वर ने उपहार स्वरूप दिया है। उसका उपयोग अपने जीवन की यात्रा को पूर्ण करने के लिए दिया है। परन्तु हम मनुष्य इसे साधन न मानकर साध्य बना लेते हैं। मनुष्य इस शरीर पर मान करता है, सारा समय उसे सजता-संवारता रहता है। वह विभिन्न प्रकार के प्रसाधनों का उपयोग करता है। नित नए फैशन के वस्त्राभूषण पहनकर सबसे सुन्दर दिखने का प्रयास करता है। सारा जीवन यही सोचता रहता है कि कोई उससे बाजी जीतकर आगे न बढ़ जाए।
          परन्तु जब मनुष्य की मृत्यु होती है तब उसका वही शरीर निर्जीव हो जाता है। सारा साजो-सामान धरा-का-धरा रह जाता है। अपने प्रियजन भी उसे अधिक समय तक सहन नहीं कर पाते और उसे उसी के घर से निकलकर अग्नि के सुपुर्द कर देते हैं। इसका कारण है कि शरीर से प्राणों के निकल जाने पर उसमें कुछ नहीं बचता। यदि उसे उस अवस्था में एक-दो दिन रख दिया जाए तो उस निर्जीव शरीर से दुर्गन्ध आने लगती है। उससे बीमारियों के फैलने का डर हो जाता है।
         हमारी भारतीय संस्कृति के अनुसार लोग मुर्दा इन्सान को कन्धा देना बहुत पुण्य का कार्य समझते हैं​। इसी प्रकार यदि जिन्दा इन्सान को कन्धा या सहारा देना भी पुण्य का कार्य समझ लिया जाए तो बहुत से लोगों की जिन्दगी संवर जाएगी, आसान हो जाएगी​। अभावों में जीने वाले लोगों को जीवन यापन करने में सुविधा हो जाएगी। इसे चाहें तो पुण्य का कार्य मानकर ही किया जाए तब भी समाज का भला ही होगा। उसके बदले में जो उन लोगों के आशीष मिलेंगे वही मनुष्य की पूँजी होती है।
         अब यहाँ मैं कहना चाहती हूँ कि अपने जीवनकाल में अपने माता-पिता की सेवा कर लेनी चाहिए। जब वे तस्वीर बनकर दीवार पर टंग जाएँगे तब उन्हें पूजने कोई लाभ नहीं होता। उस समय तो मात्र प्रदर्शन ही रह जाता है। जीते जी यदि उनकी कीमत नहीं समझी या उनकी अवहेलना करते रहे तो उनके प्रति अपने दायित्वों का निर्वहण तो नहीं हो सकेगा। यह तो अपने कर्तव्यों से मुँह मोड़कर भागने वाली बात हो गई। जिन माता-पिता को ईश्वर का रूप मानकर उनकी सेवा-सुश्रुषा करनी चाहिए थी उन्हें दर बदर की ठोकरें खाने के लिए बेसहारा छोड़ देना किसी भी तरह बुद्धिमत्ता नहीं कही जा सकती।
          मन्दिर में जाकर पत्थर की मूर्ति पर माथा रगड़कर की गई पूजा तब तक फलदायी नहीं हो सकती जब तक माता-पिता विवशता वाला जीवन व्यतीत कर रहें हैं। मन्दिर में जाकर पूजा अवश्य कीजिए पर घर में जीवित माता-पिता की अर्चना कहीं अधिक फलदायी होती है। जिसके माता-पिता अपने हृदय से आशीर्वाद देते हैं, उसके जैसा भाग्यशाली और कोई मनुष्य नहीं हो सकता। यह आज तक यह बात समझ में नहीं आ सकी कि जीवित मनुष्यों से किसी कारण से अथवा झूठे अहं के कारण लोग नफरत करके पत्थरों से इतनी मोहब्बत क्योंकर करते हैं?
         यदि गणेश जी का वाहन मूषक की मूर्ति हो तो उसकी भी पूजा करते हैं। बीकानेर के पास स्थित करनी माता के मन्दिर में घूमते हुए चूहों का गंदा व झूठ किया प्रसाद भी लोग खा लेते हैं। इसी तरह अपने दोष को दूर करने के लिए सर्प की मूर्ति की अर्चना लोग करते हैं। अपनी मनोकामना की पूर्ति हेतु गाय की मूर्ति की पूजा करते हैं। परन्तु वास्तविक जीवन में घर में आए चूहे को पिंजरे में कैद कर लेता हैं। यदि साँप कहीं दिखाई दे जाए तो उसे वहीं लाठी से मार देते हैं। घर के दरवाजे पर आई गाय को एक रोटी तक नहीं दे सकते। उसे लाठी मारकर भगा देते हैं।
         कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य का यह जीवन बहुत से पुण्यकर्मों के उदय होने पर मिलता है। इस जीवन को व्यर्थ ही नहीं गँवाना चाहिए। सारा समय अपने शरीर का ध्यान रखने के साथ-साथ अपने घर-परिवार, बन्धु-बान्धवों के प्रति अपने दायित्वों का निर्वहण करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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