मंगलवार, 12 मई 2015

शिक्षक

शिक्षक या आचार्य कैसा होना चाहिए यह विषय आज बहुत महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि हमारे लाड़लों के भविष्य निर्माण का दायित्व उनके कंधों पर है।
          प्राचीन काल में हमारे देश भारत में गुरुकुल शिक्षा पद्धति होती थी। वहाँ गुरु पथप्रदर्शक होता था। उसके मार्गदर्शन में शिष्य सर्वांगीण विकास करता था। अपने छात्र के जीवन निर्माण का दायित्व उसका होता था इसलिए उसे गुरु कहा जाता था। वह निस्वार्थभाव से बिना किसी वेतन के  शिक्षण कार्य करता था।
           उपनिषद के शिक्षा वल्ली में शिक्षा पूर्ण कर चुके शिष्यों को गुरुकुल से विदा होते समय आचार्य उपदेश देता है-
माता को देवता मानो। पिता को देवता मानो। अतिथि को देवता मानो। सृष्टि के क्रम को न तोड़ना। जो हमारे अच्छे कार्य हैं उन्हें ग्रहण करते हुए उन पर चलो। परन्तु यदि कोई हमारा कार्य अनुकरणीय न हो तो उसे छोड़ देना।
        आज के इस भौतिक युग में धन के प्रधान हो जाने से जीवन के इन मूल्यों का अभाव ही होता जा रहा है। शिक्षक भी व्पापारी होते जा रहे हैं। वे कक्षा में पढ़ाएँ या न पढ़ाएँ पर उनकी दुकानदारी चलनी चाहिए वाला कुछ शिक्षकों का एटीच्यूट शिक्षा पद्धति के लिए घातक बनता जा रहा है।
        आज समय व परिस्थितियाँ बदल गईं है। धन पहली आवश्यकता बन गया है। इसीलिए ट्यूशन सेंटर कुक्करमुत्ते की तरह फैलते जा रहे हैं। इससे अध्यापकों की संवेदनशीलता पर प्रश्न चिह्न लगता जा रहा है।
         शिक्षक शब्द का अर्थ ही यही है कि वह शिक्षित करे यानि अपने छात्रों को अपनी जीवन पद्धति के अनुसार ढाले। एक शिक्षक से सभी यह उम्मीद करते हैं कि वह उन्हें अपनी पारिवारिक, सांस्कृतिक व धार्मिक विरासत को यथावत सौंपे। अपने देश के प्रति समर्पण की भावना बच्चों में कूट-कूटकर भरे।
        वह स्वयं चरित्रवान बने और अपने छात्रों को भी इसका पालन करने के लिए प्रेरित करे।
         कुछ मुट्ठी भर शिक्षकों के कदाचार के कारण यह गुरु-शिष्य का पवित्र संबंध आज कटघरे में खड़ा दिखाई दे रहा है। अध्यापक आज अपने ही शिष्यों लड़के या लड़कियों के साथ छेड़छाड़ करते पकड़े गए हैं। कुछेक बलात्कार जैसे घृणित कार्य तक कर बैठे हैं। वे अपने सांस्कृतिक जीवन मूल्य को भूल गए हैं कि शिष्य या शिष्या बेटे एवं बेटी ही होते हैं। इस प्रकार के चारित्रिक पतन ने उन्हें अधम बना दिया है।
        शिक्षकों की एक और गंभीर समस्या है कि वे दैनन्दिन सामान्य ज्ञान से भी परे हैं। प्रायः वे मात्र केवल उस विषय की जानकारी रखना चाहते हैं जिसे स्कूल या कालेज में पढ़ाते हैं। उनमें से भी बहुत से ऐसे अध्यापक हैं जो अपना विषय है या जिसे पढ़ाते हैं उसमें भी दक्ष नहीं हैं। अपने ज्ञान की वृद्धि करने की ललक उनमें नहीं है। इसलिए अन्य पुस्तकें या पत्र-पत्रिकाएँ तो छोड़िए अपने विषय से संबंधित पुस्तकें  तक नहीं पढ़ना चाहते। बिना तैयारी के कक्षा में चले जाते हैं और बच्चों में हंसी का पात्र बनते हैं।
         जहाँ शिक्षक को अपनी योग्यता व ज्ञान के बल पर अपना स्थान बनाना चाहिए था वहाँ वह ऐसे शिष्यों की तलाश करता है जिनके माता-पिता धनाढ्य हैं या बड़े-बड़े व्यापारी हैं या राजनैतिक रुतबे वाले हैं या ऊँचे पदों पर कार्य रत हैं ताकि तुच्छ भौतिक स्वार्थों की पूर्ति कर सके। ऐसा ही कुछ हाल शिक्षण संस्थानों का भी है।
          शिक्षक या आचार्य को यदि अपनी गरिमा बनाए रखनी है व प्राचीन भारतीय गुरुओं की भाँति सम्मान चाहिए तो अपने को सामर्थ्यवान बनाना होगा। अपने सात्विक गुणों, निस्वार्थ सेवा ओर अपनी योग्यता आदि गुणों को अपने अंतस में समाहित करना होगा।

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