शुक्रवार, 22 मई 2015

धर्म की मर्यादा

धर्म की अपनी एक मर्यादा होती है उसका पालन करना चाहिए। इस लोक में माता, पिता, भाई, बन्धु और मित्र हमारे सहायक हो सकते हैं परन्तु परलोक में केवल धर्म ही साथ देता है। आत्मा के बाहर निकलते ही इस भौतिक शरीर को अपने प्रिय सुजन मिट्टी के ढेले के समान समझकर अग्नि के हवाले कर देते हैं। सभी सांसारिक रिश्ते-नाते कवल श्मशान तक साथ निभाते हैं। उसके बाद धर्म हमारा हाथ थाम लेता है और जन्म-जन्मान्तरों तक मीत बनकर मार्ग दिखाता है।
         अकेला धर्म हमारा ऐसा मित्र है जो लोक-परलोक दोनों स्थानों पर हमारा साथ नहीं छोड़ता बल्कि भाई, बन्धु, सखा आदि सब कुछ बनकर हमारी कदम-कदम पर रक्षा करता है। हम ऐसे एहसान फरामोश हैं कि उसी का तिरस्कार करते रहते हैं। वह हमें कुमार्ग पर कदम न बढ़ाने के लिए चेतावनी देता है और हम उसे डाँटकर चुप करा देते हैं जब तब अपनी मनमानी करते हैं। उसका फल कष्ट व परेशानियों के रूप में जीवन भर भोगते रहते हैं।
         धर्म कहता है माता-पिता की सेवा करो, नित्य पञ्चमहायज्ञ करो, स्त्रियों का सम्मान करो, सबके साथ समेता का व्यवहार करो आदि। जब हम धर्म के परामर्श के अनुसार चलते हैं तो इस जीवन में सफलताओं की सीढ़ियाँ चढ़ते हैं। तब स्वयं को दुनिया का सबसे सौभाग्यशाली इंसान समझकर इतराते हैं।
        धर्म मनुष्य को दुखों से निकालकर सुख की शीलत छाया में ले जाता है। वह असत्य से सत्य की ओर व अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है। यही अधर्म पर विजय दिलाता है। धर्म का पालन करके ही मनुष्य को आत्मबल मिलता है। वह किसी से डरता नहीं है। वह किसी भी प्रकार के अन्याय व अत्याचार का सजग होकर विरोध कर सकता है। दूसरों को भी धर्म की अनुपालना के लिए प्रेरित करता है। ऐसा धर्म का पालक सबुके लिए उदाहरण बन जाता है। उसे लोग महापुरुष की संज्ञा देते हैं। जिस मार्ग वह चलते हैं वह दूसरों के लिए अनुकरणीय बन जाता है।
          इसीलिए विद्वान कहते हैं- 'महाजनो येन गत: स पन्थ:।'
अर्थात महापुरुष जिस मार्ग पर चलते हैं वास्तव में ही उचित मार्ग होता है। उसी पर चलना चाहिए।
        धर्म की मर्यादा के पालन का एक अर्थ है अपने घर-परिवार, देश, धर्म व समाज के प्रति अपने दायित्वों को निभाना। प्राणिमात्र से अपने जैसा व्यवहार करना भी धर्म की मर्यादा ही है। सभी संबंधों में घालमेल न करके उनके प्रति सजग रहना धर्म का सार है। भगवान राम को हम इसीलिए मर्यादा पुरुषोत्तम कहते हैं क्योंकि उन्होंने सभी रिश्तों की मर्यादा को समझा और उनको निभाया।
       धर्म की मर्यादा का दूसरा अर्थ है जिस भी धर्म के अनुयायी हैं उसे सच्चे मन से अपनाएँ। इसके पालन में प्रदर्शन की कोई आवश्यकता नहीं होती। किसी को दिखावा नहीं करना है बल्कि आत्मिक शांति के लिए ही उसका अनुगमन करना है ताकि लोक और परलोक दोनों सुधर जाएँ।  ईमानदारी, श्रद्धा व सच्चाई से धर्म का अनुसरण करने से ही ईश्वर प्रसन्न होता है। मालिक को सरल हृदय लोग ही सदा पसंद आते हैं।
         धर्म का ढोंग करना धर्म की मर्यादा का पालन कदापि नहीं कहलाता। धर्म की मर्यादा का पालन करने का तात्पर्य यही है कि हम मन, वचन व कर्म से अपने धार्मिक और सामाजिक आदि सभी दायित्वों का सुचारू रूप से निर्वहण करें।

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