रविवार, 24 मई 2015

नदी की चाहत

माँ धरती ने और पर्वत ने
बहुत समझाया था नदी को
कि हठ छोड़ दे वह अपना
जिद न करे सागर को पाने की

पर नदी है कि सबसे दूर
दीन-दुनिया को भुला कर
बेखबर भागती जा रही है
अपने मनमीत सागर से मिलने

होश नहीं है उसको अपना
और न ही इस जहान का
निर्लज्ज-सी बनती हुई औ
अपने होशो-हवास खोती हुई

पत्थरों-चट्टानों से ठोकरें खाती
बांधों से रोकी जाती हुई वह
गंदे नालों व कूड़े-करकट से
सतायी जाती हुई बार-बार वह

आंधी, तूफानों और बारिशों के
प्रहारों को झेलते हुए निशि-दिन
बिना थके बिना इधर-उधर देखे
अपने प्राणों की परवाह किए बिना

आराम की चिन्ता से कोसों दूर
अनवरत द्रुतगति से भागती हुई
पता नहीं कितने दिनों या वर्षों की
लम्बी यात्रा कर और फिर न जाने

कितनी असह्य दूरियाँ पार कर
पहुँच रही है अब सागर के पास
वह जानती है इस बात को भी
सागर में एकाकार होने से तो

उसका अस्तित्व मिट जाएगा
उसकी पहचान गुम हो जाएगी
उसका मीठा पानी खारा हो
पीने लायक भी नहीं रह जाएगा

पर पता नहीं कैसा जुनून है
यह कैसी चाहत है उसकी
जिसने उसके जीवन का
सारा सुख-चैन ही छीन लिया है

सब बलिदानों का मात्र केवल
एक ही परिणाम है यह
सागर की टूटकर चाहत करना
ओर बस सिर्फ उसके बारे में सोचना

फिर उसको बस पा लेने का
भूत सवार सिर पर हो जाना
अंत में उसको पाकर उसमें
लीन हो जाना ही लगता है शायद

उसके जीवन का यह एक
सुनहरा सपना-सा ही तो है
जिसे पाना उसने अपना लक्ष्य
बना मनचाहा वरदान पा लिया है

कुछ भी मुश्किल नहीं है पाना
यदि ठान लो अपने मन में तो
सब रास्ते बनते जाएँगे आप ही
थोड़े कष्टों के बाद में ही तो आखिर

नदी की तरह इस संसार में
मंजिल मिल ही जाती है सबको
नहीं शक कि यत्न करने वालों की
इस जग में कभी भी हार नहीं होती है।

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