रविवार, 13 दिसंबर 2015

धन-संपत्ति सम्हालें

अपनी धन-संपत्ति को संभालें। सुनने में बहुत अटपटा लग सकता है। सच्ताई यही है जो वास्तविकता से दूर नहीं है। हम सब अपनी धन-दौलत को यथासम्भव दुनिया से बचाने का यत्न करते हैं। इसके लिए टैक्स तक में चोरी करते हैं।
          आप सोचेंगे ओर कहेंगे मेहनत से कमाई हुई धन-सम्पत्ति को क्या हम बरबाद करते हैं? यह क्या बात हुई? धन-सम्पत्ति को तो सम्हालकर सभी रखते हैं। हम भी इस कार्य में पीछे नहीं हैं। सदा उसे सबकी नजरों से छुपाकर रखते हैं। किसी की नजर उस न पड़े,  हर समय चौक्कने रहते हैं। अपने पैसे को हमने बैंक में सुरक्षित रखा हुआ है। दिन-प्रतिदिन वह बढ़ता रहे, इसलिए फ्किस डिपाजिट करवाया है। शेयर आदि में लगया हुआ है। फिर यह बात कहाँ से उठ खड़ी हो गई?
          कहने का अर्थ यही है कि हर मनुष्य अपने धन को सुरक्षित  करने के लिए तरह-तरह के उपाय करता है। सारा जीवन पाई-पाई करके संग्रह करता है, उसे दाँतों से पकड़कर रखता है। उस समय उसे अपने जीवन की धूप-छाँव के लिए पैसे बचाने की फिक्र रहती है। वह इन सबके लिए परिश्रम पूर्वक बचत करता है।
         समय बीतते जब वह वृद्धावस्था की ओर कदम बढ़ाता है, उस समय वह भूल जाता है कि उसे अपने बुढ़ापे की सुरक्षा के लिए उपाय करने हैं। सारा जीवन जिस धन को बचाने में लगा दिया, वही धन यदि बुढ़ापे में उसके किसी काम नहीं आ पाता तो यह उसका दुर्भाग्य होता है।
      सब कुछ होते हुए भी यदि वह दरबदर की ठोकरें खाने के लिए लाचार हो जाए अथवा उसे ओल्ड होम की शरण में जाना पड़े तो उस मनुष्य से बड़ा दुर्भाग्यशाली और कोई नहीं हो सकता। तब उस बचाए गए धन को कोसने का का कोई लाभ नहीं होता। जिनके कारण उसकी यह दुर्गति हुई उन्हें भी लानत-मलानत करने का कोई औचित्य नहीं रहता।
           वृद्धावस्था तक आते-आते शरीर अशक्त हो जाता है, उस समय हर मनुष्य को सहारे की आवश्यकता होती है। यदि अपने घर और अपने बच्चों का सहारा उसे मिल जाए तो वह बहुत ही सौभाग्यशाली इन्सान होता है।
         इज स्थितियाँ बहुत विपरीत होती जा रही हैं। सभी पर स्वार्थ हावी होता जा रहा है। स्वार्थ में डूबे बच्चे माता-पिता की धन-सम्पत्ति तो पाना चाहते हैं पर उनकी देखभाल नहीं करना चाहते। वे उनकी जिम्मेदारी नहीं उठाना चाहते।
          बहुत से ऐसे बच्चे आज दिखाई देते हैं जिन्होंने धोखे से साइन करवाकर मकान, दुकान या फेक्टरी अपने नाम करवाकर अपने माता-पिता को मोहताज बना दिया। कभी-कभी माता-पिता स्वयं सन्तान के मोह में आकर अपनी सारी जमा -पूँजी उन्हें थमा देते हैं।
          जब तक माता-पिता का सब कुछ हथिया नहीं लेते तब तक वे श्रवण कुमार की तरह आज्ञाकारी होने का ढोंग करते हैं। सब पा लेने के बाद दो जून रोटी के लिए भी उन्हें तरसाते हैं। उनकी जरूरतों से ज्यादा अपनी जरूरतें उन बच्चों को दिखने लगती हैं। ऐसी स्थिति में उनके स्वास्थ्य की चिन्ता वे नालायक बच्चे क्योंकर करने लगे।
         पाँचों अगुलियाँ जिस प्रकार बराबर नहीं होतीं, उसी प्रकार सभी बच्चों को एक लाठी से हाँकना ठीक नहीं। इतनी बुराई समाज में आ जाने के बाद भी माता-पिता की चिन्ता करने वाले बच्चो की संख्या बहुत है।
         बच्चे चाहे आज्ञाकारी हों अथवा नालायक मनुष्य को अपने लिए अवश्य ही बचाकर रखना चाहिए। जब तक जीवन है तब तक अपना सब कुछ बच्चों को सौंपना नहीं चाहिए। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि आपके बहुत-सी धन-दौलत है और बच्चों के सचमुच के कठिन समय में आप उनकी सहायता करने से इन्कार कर दें।
         आपकी मृत्यु के पश्चात आपका सब कुछ बच्चों का है। जीते-जी अपने हाथ से उनके जन्मदिन, शादी की सालगिरह आदि के मौके पर उन्हें भेंट के रूप में अवश्य देते रहें समय रहते अपनी वसीयत भी बना लें ताकि दोनों में से जो पीछे बचे उसे कठिनाई का सामना न करना पड़े।
       इसलिए मैं ने आप सभी को आगाह करते हुए कहा है कि अपनी धन-सम्पत्ति को बचाइए, उस पर साँप की तरह कुण्डली मारकर मत बैठिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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