मंगलवार, 8 दिसंबर 2015

असहिष्णुता

आजकल असहिष्णुता शब्द की राजनैतिक गलियारों में चर्चा बहुत जोरों पर है। इसका अर्थ है दूसरे लोगों को अथवा उनके कथन को सहन न कर पाना। समझ में नहीं आता कि दिन-प्रतिदिन हम लोग इतने असहिष्णु क्यों बनते जा रहे हैं? हम लोग किसी को भी बर्दाशत नहीं करना चाहते।
          आज धर्म के नाम पर, जाति के नाम पर या किसी अन्य मुद्दे को लेकर हम सब अपना सन्तुलन खोकर असहिष्णु बनते जा रहे हैं। आतंकवाद भी इसी असहिष्णुता का ही परिणाम है।
          ये सभी असहिष्णु कार्य किसी भी सभ्य कहे जाने वाले समाज के लिए बहुत घातक होते हैं। आज वर्तमान में इससे होने वाले दुष्परिणामों को शायद हम नकार देना चाहते हैं या अनदेखा करके आगे बढ़ जाना चाहते हैं। इस ओर से हम अपनी आँखें बन्द कर लेना चाहते हैं। ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि जाने-अनजाने इन सबका परिणाम, निश्चित ही हम सबको भोगना  पड़ेगा।
          बहुत विचार करने पर मुझे यही समझ में आया है कि हम सभी लोग कंक्रीट के जगलों में रहते हुए संवेदनाहीन होते जा रहे हैं। हमारी सहिष्णुता चुकती जा रही है। हम अपने घर, अपने पति या अपनी पत्नि और बच्चों के अलावा किसी और के प्रति भावना नहीं रख पा रहे।
         हमारा खान-पान, हमारी जीवन शैली में बहुत अधिक परिवर्तन आ चुका है। हमने अनावश्यक रूप से स्वयं को इतना अधिक व्यस्स्त कर लिया है। इसलिए शायद हम इन सबसे अनजान बने रहने में अपनी भलाई समझते हैं। उस सबका प्रभाव हमारे विचारों और हमारी संवेदनाओं को निश्चित ही प्रभावित करता है।
        इसका एक और प्रमुख कारण जो मुझे लगता है, वह यह भी हो सकता है कि लोगों के मन से आपसदारी, भाईचारे, प्रेम-मुहोब्बत जैसे शब्द कहीं खोए जा रहे हैं। उनके स्थान पर स्वार्थ हावी होता जा रहा है।
          हमें अपने स्वार्थों से आगे कुछ भी नहीं दिखाई देता। बहुत से लोग अपने स्वार्थो को पूरा करने के लिए भ्रष्टाचार,चोरबाजारी, रिश्वतखोरी, अनाचार, दुराचार जैसे असामाजिक कार्य बड़े गर्व से करते हैं। यदि किसी का गला काटकर अथवा किसी की पीठ में खंजर घोंपकर उनका अपना उल्लू सीधा हो सकता है तो वे उससे भी कोई परहेज नहीं करते।
         जहाँ तक, जब तक स्वार्थ पूरे होते रहते हैं, वहीं तक संबंध बने रहते हैं। उसके बाद फिर तू कौन और मैं कौन वाली स्थिति बनती जा रही है। यह मतलब परस्ती हमें दिन-प्रतिदिन असहिष्णुता के कटघरे में लाकर खड़ा कर देती है।
         मुझे सोचने पर भी समझ नहीं आ रहा कि हम मानव क्योंकर असहिष्णु बन रहे हैं। जबकि विश्व का कोई भी धर्म हमें ऐसा बनने की अनुमति नहीं देता। इन्सान ऐसा बनकर आज न ईश्वर से डर रहा है और न ही धर्म के पथ पर चलना चाह रहा है।
          हम या तो इस असहिष्णुता नाम की बिमारी के बारे में सोचना-समझना नहीं चाहते या फिर हमें इस सब में रच-बसकर इसका आनन्द उठाना चाहते हैं। दोनों ही स्थितियों में हम बारूद के ढेर पर खड़े विनाश को न्यौता दे रहे हैं अथवा उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।
          हमारे ऋषि-मुनियों ने तथा हमारी भारतीय संस्कृति ने हमें सदा ही सहिष्णुता का पाठ पढ़ाया है। यही कारण है कि हम विदेशों से आई हुई, देश में रच-बसकर रहने वाली अन्य संस्कृतियों, अन्य धर्मों एवं अन्य जातियों को आत्मसात कर पाए हैं। यदि हम अपने इस सद् गुण को खो देंगे तो हमारे पास कुछ नहीं बचेगा यानि हम ठन-ठन गोपाल हो जाएँगे।
           हमें असहिष्णुता का दामन छोड़कर सहिष्णुता का सरल मार्ग अपनाना चाहिए। इसी से हमारे भारत देश का ही नहीं, जात विश्व का अर्थात सम्पूर्ण मानव जाति का कल्याण सम्भव हो सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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