मंगलवार, 1 मार्च 2016

मन में बुराई न रखो

मनुष्य का अपने जीवन काल में अनेक लोगों से वास्ता पड़ता है। सभी लोग अलग-अलग स्वभाव व कार्यक्षेत्र के होते हैं। कुछ लोगों की मधुर स्मृतियाँ उसकी पूँजी बन जाती हैं। उन्हे जीवन में प्राय: याद करके आनन्द से सराबोर हो जाता है। कुछ लोगों के साथ होने वाले कटु अनुभवों के कारण उन्हें याद करके उसके मन में आक्रोश पनपने लगता है। उन्हें वह दुस्वप्न समझकर भूलने की नाकामयाब कोशिश करता है।
            हर मनुष्य का स्वभाव ऐसा नहीं होता कि वह उनका प्रतिकार करे अथवा उनके मुँह पर जूता मारने जैसा व्यवहार करे। वह अपने भीतर-ही-भीतर कुढ़ता रहता है। यह पिष्टपेषण उसे चैन नहीं लेने देता और वह असहज होने लगता है। इस तरह उसके दिन-रात की मानसिक शान्ति भंग होने लगती है। यह स्थिति किसी भी तरह सराही नहीं जा सकती।
            हमारे मनीषी इसीलिए समझाते है कि दिल में बुराई रखने से बेहतर है उस नाराजगी को प्रकट कर दो। ऐसी विकट परिस्थिति में जहाँ दूसरो को समझाना कठिन हो जाए, वहाँ स्वयं को समझ लेना ही बेहतर है। आत्मविश्लेषण करते रहना चाहिए। इससे पता चल जाता है कि गलती सामने वाले की थी या हमीं से कहीं चूक हो गई।
          प्रसन्न रहने का सीधा-सा मन्त्र यही है कि आशा या उम्मीद केवल अपने आप से रखी जाए किसी अन्य से नहीं। दूसरों से उम्मीद रखने पर प्राय: निराशा ही हाथ लगती है। जितनी अपनी सामर्थ्य है उसके अनुरूप ही हमें सफलता मिल पाती है। बहुत बार हम स्वयं ही अपनी उम्मीद के अनुसार सफलता पाने से चूक जाते हैं।
           जब हम स्वयं अपनी आशा और विश्वास पर खरे नहीं उतर पाते तब हमें यह सोचना चाहिए कि दूसरा भी इन्सान है, उससे भी चूक हो सकती है। इसलिए हमें दूसरों से नाराज नहीं होना चाहिए।
           सहृदयता पूर्वक चिन्तन करने से मन में दूसरों के प्रति आने वाली दुर्भावनाएँ स्वयं ही किनारा कर लेती हैं। इससे दूसरों के लिए मन में जमी ईर्ष्या व क्रोध रूपी धूल की परतें साफ हो जाती हैं और मन दर्पण की तरह चमकने लगता है।
           मेरा विचार है कि जब दो लोगों में किसी भी विषय पर टकराव हो तो उसे आमने-सामने बैठकर सुलझा लेना चाहिए। अपने मन में दुराग्रह पाल करके बैठने से अच्छा है कि अपनी नाराजगी के कारण को प्रकट करके दूर कर देना चाहिए। ऐसा करने से सम्बन्धों में आने वाला मनमुटाव दूर हो जाता है और वे लम्बे समय तक बने रहते हैं।
            सम्बन्ध कोई भी हो, चाहे माता-पिता का हो, पति-पत्नी का हो, फिर दोस्तों-रिश्तेदारों के मध्य हो अथवा कार्यालयीन साथियों का हो, उन सबमें पारदर्शिता का होना बहुत आवश्यक है। अपने मनों में कभी भी, किसी भी कारण से दरार नहीं आनी चाहिए। उसके कारण आने वाली दूरी को पाटना असम्भव तो नहीं कठिन अवश्य हो जाता है।
          यदि सम्बन्धों में तनाव बना रहेगा और उसे दूर करने का प्रयास नहीं किया जाएगा, तब सभी प्रभावित लोगों के मनों को अतीव कष्ट होगा। यह स्थिति किसी भी सहृदय के लिए भी सुखद नहीं कही जा सकती। सबसे बड़ी बात कि सहजता और सरलता का वातावरण बनाने में आई बाधा को सभी दूर करना चाहते हैं। इसके मूल में सभी पक्षों का अहं आड़े आ जाता है जो समझौता करने से इन्कार कर देता है।
         गलती करना मानवीय प्रकृति है, इसे सदा याद रखना चाहिए। यदि बिना किसी पूर्वाग्रह के इसे स्वीकार करते हुए यदि क्षमाशील बना जाए तो दूसरों को मानसिक सन्ताप देने के स्थान पर उन्हें उन्हीं की गलती का अहसास कराते हुए अपनी विशालहृदयता का परिचय देना चाहिए। हर व्यक्ति दूसरों की उम्मीद पर खरा नहीं हो सकता। अतः दूसरों से नाउम्मीद होने के स्थान पर स्वयं पर भरोसा रखना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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