सोमवार, 7 मार्च 2016

नारी के मंदिर प्रवेश के बहाने

महिलाओं को मन्दिर में नहीं जाना चाहिए अथवा नहीं, ऐसी बहस प्राय: हर न्यूज चैनल पर आयोजित की जा रही है। शेष अन्य विवादों की तरह इसका भी कोई हल नहीं निकलता। सभी अपने-अपने विचार रखते हैं, तीखी टीका-टिप्पणियाँ करते हैं और परिणाम वही रहता है यानि ढाक के तीन पात।
          कल 7 मार्च 2016 न्यूज24 पर शाम 7 बजे हो रही बहस में हो रही थी, उसी को देखते-सुनते हुए यह आलेख लिखने का मन बनाया।
           आज यह ज्वलन्त प्रश्न एक मुद्दा  बनता जा रहा है कि यदि पूजा करने के लिए महिलाओं को मन्दिर में जाने की अनुमति नहीं है तो पुरुषों को भी नहीं होनी चाहिए। इसका कारण है कि दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। यह कहना बिल्कुल गलत है कि पुरुष स्त्री से अधिक श्रेष्ठ है। हाँ, शारीरिक रूप से वह अधिक शक्तिशाली हो सकता है पर आज ज्ञान, विज्ञान, उद्योग, राजनीति आदि कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जहाँ महिलाएँ पुरुषों से कमतर सिद्ध हो रही हैं।
           पुरुष को अपने जीवन में हर कदम पर स्त्री के सहारे की आवश्यकता पड़ती है। जन्म लेने के लिए एक माता की जरूरत होती है और फिर एक बहन चाहिए होती है। बाद में पत्नि की आवश्यकता होती है जिसके काल कवलित हो जाने पर वह अपना घर अकेले नहीं चला सकता और अपने बच्चों को भी अकेले नहीं पाल-पोसकर बड़ा नहीं कर सकता। जबकि पति की मृत्यु के उपरान्त स्त्री को इन सब समस्याओं से दो-चार नहीं होना पड़ता।
           यदि हम बात करें वेदों की तो उनमें ऐसा कोई विधान किसी के लिए भी नहीं है कि वे मन्दिरों में नहीं जा सकते। वहाँ पर तो पूजा करने के लिए मन्दिरों की कल्पना ही नहीं है।
           हमारे मनीषी समझाते हैं कि ईश्वर को पाने के लिए किसी मन्दिर यानि धर्म स्थानों या तीर्थों में जाने, जंगलों में खोजने, तथाकथित गुरुओं अथवा तान्त्रिकों-मान्त्रिकों के पास जाकर भटकने की कोई आवश्यकता नहीं है। उसे पाना बहुत ही सरल होता है। वह तो मनुष्य के मन में ही रहता है और वहीं पर ही मिलता है। वह केवल मनुष्य के मन के भाव में रहता है। अब प्रश्न यह उठता है कि यदि स्त्री घर बैठकर ईश्वर की उपासना करे तो फिर यही नियम पुरुषों पर क्यों लागू नहीं होता? वह घर बैठकर साधना क्यों नहीं कर सकता?
           किसी-किसी क्षेत्र में आज महिलाएँ पुरुषों से भी आगे निकल गई हैं। उनके अधीनस्थ पुरुष कर्मचारी इसे पचा नहीं पाते कि उन्हें किसी महिला अधिकारी के अधीन कार्य करना पड़ रहा है।
          इक्कसवीं सदी में आज भी पुरुष मानसिकता यही है कि स्त्री उनके अँगूठे के नीचे दबकर रहे। उसे सिर उठाकर चलने का अधिकार वे नहीं देना चाहते। स्वयं  वे चाहे विवाहेत्तर सम्बन्ध बनाएँ परन्तु यदि बहन या पत्नि किसी साथी पुरुष से बात भी कर ले तो उसे प्रताड़ित किया जाता है, उसे खरी-खोटी सुनाई जाती है। यदि वह पुरुष प्रधान समाजिकता में अपना एक स्थान बनाने के लिए संघर्ष करना चाहती है तो उसके पैरों में बेड़ियाँ डालने का प्रयास किया जा रहा है। उसे कभी तो घर-परिवार का वास्ता दिया जाता है और फिर कभी परम्पराओं के नाम की दुहाई देकर उसके बढ़ते हुए कदमों को पलटने के लिए विवश किया जाता है।
           मन्दिर प्रवेश तो एक बहाना है। इस बहाने वह कुत्सित राजनैतिक चालें चल रहा है। टी वी पर होने वाली चर्चाओं में उन पर कटाक्ष भी किए जाते हैं। पुरुष आज अपनी पत्नी को धन कमाने का माध्यम तो बनाना चाहता है पर उसकी वैचारिक स्वतन्त्रता में बाधक बनता है। स्त्री यदि आगे बढ़ती है तो उस पर लाँछन लगाने से भी बाज नहीं आता।
            हमारे धर्म और हमारे शास्त्र स्त्री और पुरुष दोनों को बराबर मानते हैं। हमारा भारतीय संविधान महिलाओं को पुरुषों की बराबरी का अधिकार देता है। अपने इन अधिकारों को महिलाओं को निस्सन्देह आगे बढ़कर को प्राप्त करना चाहिए पर वहीं उन्हें अपने दायित्वों से भी मुँह नहीं मोड़ना चाहिए। नारी मुक्ति के नाम पर की जाने वाली उच्छ्रँखता असहनीय है। इससे बचने का हर सम्भव प्रयास हर महिला को करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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