बुधवार, 30 मार्च 2016

मित्रता एक उपहार

मित्रता सदा ही जाँचकर और परखकर ही करनी चाहिए। मित्र अपने मानसिक स्तर के अनुरूप तो कम-से-कम होना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि ऐसे लोगों से दोस्ती कर ली जाए जिससे कि उन दोस्तों के कारण जीवन में कभी पछताना पड़े अथवा शर्मिन्दा होना पड़े। इसलिए जहाँ तक सम्भव हो सके दोस्ती ऐसे व्यक्ति से ही करनी चाहिए जो हर प्रकार से योग्य हो, विश्वसनीय हो, हितचिन्तक हो अथवा सज्जन हो।
          वास्तव में मित्र वही होता है जो माता के समान मनुष्य की रक्षा करता है, पिता की तरह उसे हितकारक कार्यों में लगाता है। कुमार्ग पर जाने पर डाँटकर लौटाकर ला सकता है। सच्चा मित्र किसी भी परिस्थिति में साथ नहीं छोड़ता। वह हर दुख-सुख में सबसे पहले कन्धे-से-कन्धा मिलाकर खड़ा मिलता है।
            वह इससे अनजान रहना चाहता है कि उसका मित्र अमीर है या गरीब। वह मित्र को उसके धर्म अथवा जाति से नहीं बल्कि अपनेपन के कारण पहचानता है। इसीलिए भगवान कृष्ण और गरीब ब्राह्मण सुदामा की मित्रता से बड़ा और कोई उदाहरण हो ही नहीं सकता।
          सज्जन व्यक्ति के साथ मित्रता को हम गन्ने के समान मान सकते हैं। गन्ना जिसे हम पूजा में रखते हैं और उससे बनी चीनी से तैयार स्वादिष्ट पदार्थ खाकर जीवन का आनन्द लेते हैं। उसे कितना ही तोड़ लो, छील लो, चूस लो, यहाँ तक कि उसे मशीन में डालकर पीस ही डालो वह हर बार केवल अपनी मिठास से ही हम सबको निहाल करता है। यानि हर तरह से वह गन्ना मिठास ही देता है। वह मिठास हमारे अनेक भोज्य पदार्थों को रसीला और स्वादिष्ट बनाती है। उन मनभावन व्यञ्जनों खाकर हम सभी तृप्त हो जाते हैं।
          मित्र की मित्रता भी इसी तरह होती है जो मनुष्य को अपनी मिठास से सराबोर करती है। फूल की तरह यह नाजुक और सुगन्ध देने वाली होती है। इस मित्रता को विश्वास और सच्चाई की खाद से पुष्ट करना चाहिए और स्नेह के जल से सींचना चाहिए। तभी यह दोस्ती पुष्पित और पल्लवित होती है जिसकी खुशबू चारों ओर फैलती है। इस मित्रता को देखकर किसी को भी ईर्ष्या हो सकती है।
          मित्रता में यदि विश्वास को तोड़ा जाए अथवा झूठ, छल-फरेब घर कर जाएँ तो इसमें दरार आ जाती है। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि ऐसी अनमोल दौलत को कोई भी नहीं खोना चाहेगा। इसे खोने का अहसास ही बहुत कष्टदायी होता है। इसलिए सच्चे मित्रों से किनारा नहीं करना चाहिए और न ही दोस्तों के रास्ते में काँटे बिछाने के विषय में सोचना चाहिए।
         बचपन में जब मनुष्य मित्रता के मायने नहीं जानता उस समय वह अपने पास आने वाले हर किसी को अपना दोस्त मानता है जो उससे बात करता है या उसके साथ खेलता है अथवा अपने खिलौने आदि शेयर करता है।
           वही बच्चा जब बड़ा हो जाता है तब वह समझदार बन जाता है। उस समय उसे अपने विवेक से मित्रों का चुनाव करना चाहिए। यथासम्भव चापलूस लोगों को अपने से दूर रखना चाहिए। क्योंकि वे स्वार्थवश साथ जुड़ते हैं और अपनी स्वार्थ की पूर्ति होते ही वे पराए हो जाते हैं। उस समय लगने वाले मानसिक आघात से बचा जा सकता है।
          मित्र वास्तव में श्मशान तक का साथ निभाने वाला होना चाहिए, तभी जीवन का आनन्द बना रहता है। आज के भौतिक युग में सच्चा, निस्वार्थ मित्र मिलना किसी खजाने को पाने से कमतर नहीं है। मनुष्य का सौभाग्य होता है तभी उसे ऐसा साथी मिलता है। ऐसे रत्न को सम्हालकर रखना चाहिए जो दुनिया की भीड़ में बिना किसी हील-हुज्जत के हाथ थामकर आगे जाने में समर्थ हो सके।
चन्द्र प्रभा सूद
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