गुरुवार, 3 मार्च 2016

कर्मों की पूंजी बढ़ाएँ

मनुष्य जीवन भर अपनी पूँजी बढ़ाने की फिराक में रहता है। ऐसा कोई अवसर नहीं चूकता जिससे उसकी पूँजी में बढ़ोत्तरी हो सके और उसका धन दिन-प्रतिदन द्विगुणित होता रहे। इसके लिए अपने धन को बैक में फिक्सड कराता है, स्वर्ण आदि के बाँड खरीदता है, उसे शेयर मार्किट में लगाता है, नए व्यापार में उसे इन्वेस्ट करता है। और भी न जाने क्या-क्या उपाय अपने जीवन काल में करता रहता है?
         मनुष्य हर हाल में दूसरों से आगे निकलकर विजयी कहलाना चाहता है। इसके लिए घर-परिवार की परवाह किए बिना दिन-रात का सुख-चैन होम कर देता है। माता-पिता, पत्नी-बच्चों, बन्धु-बान्धवों तक सबको भुलाकर पूँजी को बढ़ाने के लिए अपने एकसूत्री मिशन पर आगे-आगे बढ़ता ही जाता है। तब उसके पास पीछे मुड़कर देखने के लिए भी कोई समय नहीं होता।
           उस संघर्ष काल में उसका अपना समय भी उसके हाथ से फिसल जाता है। उसके जीवन में फिर एक समय भी ऐसा आ जाता है जब अथक परिश्रम से कमाई हुई मनचाही दौलत उसके पास एकत्र हो जाती है पर अपनों का साथ छूट जाता है। तब वह हैरान रह जाता है और पश्चाताप करता है कि यह उसने क्या कर डाला? उसके हाथ में उस समय कुछ भी नहीं बच पाता। वह मानो खाली हाथ रहकर दूसरों का मुँह ताकता रह जाता है।
          उस भागमभाग में वह इस सत्य को भी भूल जाता है कि उसकी वास्तविक पूँजी उसके अपने बन्धु-बान्धव हैं। उनसे भी बढ़कर उसके अपने सद् विचार हैं, उसकी नेक करनी है। धन-दौलत और ऐश्वर्य तो सब इस लोक की कमाई है जो परलोक में उसके साथ नहीं जाते। जहाँ आँखे बन्द हुईं सब कुछ मानो समाप्त हो जाता है। उसके सत्कर्म और उसके विचार रूपी पूँजी जन्म-जन्मान्तरों तक उसके साथ रहती है। उन्हीं के अनुसार ही मृत्यु के पश्चात उसे पुनर्जन्म मिलता है।
          जैसे-जैसे कर्म मनुष्य करता रहता है वैसा-ही-वैसा फल उसे मिलता है। न उससे कम और न उससे ज्यादा। ईश्वर के न्याय में किसी प्रकार की हेराफेरी अथवा भाई-भतीजा वाद नहीं होता। वह किसी के साथ पक्षपात नहीं करता। इसलिए वहाँ पर बस केवल फेयर गेम होती है।
          इन्सान को यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि यह धन-वैभव मोहिनी माया है। वह आज एक के पास है तो कल दूसरे के पास चली जाती है। उसके लिए राजा और रंक सब एक समान हैं। आज पैसा जेब से निकालो तो वह दूसरे की जेब में चला जाता है और उसकी पूँजी को बढ़ाता है।
           इसलिए मनुष्य की वास्तविक पूँजी धन न होकर उसके अपने विचार होते हैं। धन तो खरीददारी करते समय दूसरों के पास चला जाता है। उसके सद् विचार तब तक उसका साथ नहीं छोड़ते जब तक वह स्वयं कुमार्ग पर चलने के लिए उन्हें न छोड़ दे। ये उसके अपने पास उसकी जमा पूँजी बनकर ही रहते हैं। यह पूँजी केवल इसी जन्म में शेष नहीं रह जाती बल्कि जन्म-जन्मान्तरों में कमाई हुई पूँजी के जुड़कर उसमें वृद्धि करती है। इस तरह हमारे सद् विचार हमारी आध्यात्मिक उन्नति करते हुए हमें महान बनाते हैं।
          ज्यों ज्यों वह अपने सद् ग्रन्थों का अध्ययन करके, सज्जनो की संगति करके और ईश्वर की आराधना करके उनका संचय करता जाता है, त्यों त्यों वे उसे आम साधारण जन से ऊपर उठाकर महामानव की श्रेणी में लाकर खड़ा कर देते हैं। फिर वह समाज में शिरोमणि पद प्राप्त कर लेता है। दुनिया उसके पीछे चलती है।
          अत: अपनी भौतिक पूँजी अवश्य बढ़ाइए पर साथ ही अपने सुविचारों की पूँजी बढ़ाने पर भी जोर देना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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