रविवार, 20 मार्च 2016

हितचिन्तक हमारे अपने

हमारे अपने कौन होते है? अपने वही लोग होते हैं जो हमारे हितचिन्तक होते हैं। वे किसी भी परिस्थिति में, कभी भी हमारी उन्नति में बाधक नहीं बनते। वे सदा यही चाहते हैं कि हम दिन दुगनी रात चौगुनी तरक्की करें। हमारी सफलताओं पर वे सच्चे मन से आह्लादित होते हैं और मिलने वाली असफलताओं पर व्यथित होकर हमें ढाढस बंधाते हैं। यही हितैषी हमारे बचाव के लिए चारों ओर एक सुदृढ़ किला बना देते हैं।
           हम चाहे उन्हें अनदेखा करने का प्रयास करें परन्तु वे हमारे प्रेरणा स्त्रोत बनकर समय-समय पर हमारा मार्गदर्शन करके लाभान्वित करते हैं। ऐसे गुणी जन हमारे कुमार्ग की ओर अग्रसर होने पर रूष्ट हो जाते हैं। बिना शिकायत किए किसी भी तरह हमें वापिस अच्छाई के रास्ते पर मोड़कर ले आते हैं। यह उनकी महानता होती है कि वे हमारी नाराजगी की परवाह किए बिना हमें सन्मार्ग की ओर उन्मुख करते हैं।
           मनुष्य जब अहंकारवश स्वयं को महान समझने की भूल करने लगता है और ऐसे सहृदय जनों की अवहेलना करने लगता है या उन्हें अनदेखा करने लगता है तब उसे दुर्भाग्य के पंजे में जकड़ने से कोई नहीं बचा सकता। उस समय यह मान लेना चाहिए कि 'विनाशकाले बुद्धि विपरीता' अर्थात् विनाश का समय आने पर केकैयी की बुद्धि की तरह मनुष्य की बुद्धि विपरीत हो जाती है जो भविष्य में उसके स्वयं के नाश का कारण बनती है।
           जब प्रभूत सुख-समृद्धि मनुष्य के पास आती है तो गुड़ पर मक्खियों की तरह चाटुकारों की फौज उसके चारों ओर ही मंडराने लगती है। फिर इन स्वार्थी लोगों के मकड़जाल से बच निकलना बहुत कठिन हो जाता है। उन लोगों के स्वार्थ साधने के प्रयास मनुष्य की आँखों पर गांधारी की तरह पट्टी बाँध देते हैं। इसलिए वे उसे असहाय बनाकर विवश बना देते हैं।
           जब मनुष्य की परीक्षा की घड़ी होती है यानि दुख-परेशानी का समय होता है तब जो उसकी ढाल बनें वास्तव में वही उसके अपने होते हैं। यद्यपि उनकी पहचान करने में मनुष्य बहुत समय लगा देता है तब तक उसकी प्रतिष्ठा सहित उसका बहुत कुछ दाँव पर लग जाता है। फिर उस सबको पुन: पाने में बहुत श्रम और समय लग जाता है।
           यह वही संक्रमण काल होता है जब उसके तथाकथित हितैषी उससे किनारा कर लेते हैं। उसकी अपनी परछाई तक उससे दूर भाग जाती है। वह स्वयं को निपट अकेला पाता है। उस समय उसका हाथ थामने के बजाय सभी उससे बहाना बनाकर दूर होने लगते हैं। ऐसे समय में मजबूती से उसका हाथ पकड़कर चलने वाला तो कोई विशेष ही होगा।
          मनुष्य की खुशियों में केवल वही लोग शामिल होते हैं जिन्हें वह चाहता है अथवा उन्हें निमन्त्रण देता है। उनमें भी बहुत से लोग ऐसे हो सकते हैं जो किसी भी कारण से उससे ईर्ष्या करते हों। केवल खानापूर्ति के लिए भार समझकर उसके आमन्त्रण पर चले आते हैं।
            इसके विपरीत उसके दुख में वे लोग भी बिनबुलाए शामिल हो जाते हैं जो उसके अपने होते हैं या उसे चाहते हैं। चाहे वह उन्हें बुलाए या नहीं। उनके आने पर हो सकता है वह उनके प्रति किए गए अपने दुर्व्यवहार के कारण असहज अनुभव करे। उनकी यह अच्छाई उसे विचार करने पर अवश्य ही विवश कर देती है कि जब सब अपनों ने मुसीबत में डूबने के लिए छोड़ दिया है, उस समय वे लोग निस्स्वार्थ भाव से उसका साथ दे रहे हैं।
          मनुष्य को अपने और पराए का अन्तर अपने विवेक से करना चाहिए। आस्तीन के साँपों को पहचानकर उनसे यथासम्भव दूरी बना लेनी चाहिए। इसी प्रकार अपने हितैषियों को परखने के स्थान पर उनसे जुड़े रहने का हर सम्भव प्रयास करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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