शुक्रवार, 1 जुलाई 2016

निस्वार्थ परोपकार

मनुष्य निस्वार्थ भाव से जो भी परोपकार के कार्य करता है वे कभी व्यर्थ नहीं जाते। वे कार्य उसके शुभकर्मों में जुड़ जाते हैं और उसके पुण्यों को बढ़ाते हैं। समयानुसार फलदार वृक्ष की तरह फिर वे उसे मीठा फल देते हैं। ऐसे मनुष्य की प्रसिद्धि कहाँ तक फैलेगी, यह सब ईश्वर ही जानता है। न तो वह स्वयं जानता है और न ही कोई और।
       उसके समीपस्थ अन्य दूसरे लोग चाहे उसकी चाहे कितनी ही आलोचना क्यों न करते रहें, उन्हें अनदेखा करते हुए वह अपनी ही धुन में मस्त, अपने द्वारा चुने हुए मार्ग पर सूर्य की तरह निरन्तर गतिमान रहता है।
       यहाँ हम एक कथा को लेते हैं जो इन्हीं विचारों की पोषक है। एक बहुत ही सज्जन व्यक्ति थे जो हर आने-जाने वाले को अपने पास बिठाकर पानी पूछते थे। आया हुआ कोई परदेसी यदि भूखा होता तो उसे पूछकर खाना भी खिलाते थे। वे बस यही कहते थे कि जो यहाँ दिया है, तो वहाँ मिलेगा।
        एक बार उन्हें किसी कार्यवश दूसरे शहर जाना पड़ गया। उन्होंने अपनी बहू से कहा कि चार पराँठे बनाकर उनके बैग में रख दे। जब भूख लगेगी तो किसी पेड़ की छाया में बैठकर खा लूँगा।
         उनकी बहू ने मन में विचार किया कि नित्य प्रति लोगों को खाना खिलाते रहते हैं और कहते हैं कि यहाँ दिया है तो वहाँ मिलेगा। इन्हें भोजन की क्या आवश्यकता आ पड़ी। उसने खाना नहीं बनाया। जब वे सज्जन घर से जाने लगे तो उन्होंने बहू से पूछा कि क्या उसने भोजन रख दिया है। उसने हाँ में उत्तर देते हुए कहा कि रख दिया है, आगे जाकर मिल जाएगा।
         वे अपने गन्तव्य पर थके-माँदे पहुँचे और एक चबूतरे पर बैठ गए। थोड़ी दूरी पर काम रहे युवक ने उन्हें देखा तो पहचान गया कि वे वही सज्जन हैं जिन्होंने थके और भूखे-प्यासे उसे खाना खिलाया था। वह उनके पास आया और उनसे हालचाल पूछा। फिर भूखा जानकर उन्हें बड़े प्यार से खाना खिलाया।
        तब उन सज्जन ने कहा कि मेरे बैग में मेरी बहू ने खाना रखा है, उसे भी खा लेते हैं। परन्तु जब उन्होंने बैग खोला तो देखा कि उसमें बहू ने खाना रखा ही नहीं था। तभी उन्हें बहू के शब्द याद आ गए कि यहाँ जो खाना दिया है, वह आगे जाकर मिल जाएगा।
          यहाँ मैं एक बात और स्पष्ट करना चाहती हूँ कि अपना खुद का पेट भर लेना और अन्य किसी के बारे में कभी न सोचना पशुवृत्ति कहलाती है। मनुष्य को मिल-बाँटकर खाना चाहिए।
          स्वयं के हिस्से का भोजन खाना तो प्रकृति कहलाती है किन्तु दूसरों के हिस्से पर नजर रखना अथवा खा लेना विकृति कहलाती है। इन सबसे भी बढ़कर होता है किसी भूखे को अपना हिस्सा दे देना उसके संस्कारों को बताता है। हमारी भारतीय संस्कृति सदा अतिथि की सेवा करने का निर्देश देती है।
        जिन लोगों ने कभी भूख की ज्वाला का अनुभव नहीं किया उन्हें पता ही नहीं कि भूखा व्यक्ति क्या नहीं कर गुजरता। जिनके पेट भरे होते हैं उनके दिमाग खराब हो जाते हैं और नखरे होते हैं। इसलिए उनके घर की रोटियाँ किसी जरूरतमन्द को देने के स्थान पर कूड़े में फैंक दी जाती हैं या खाने लायक नहीं रहतीं।
        किसी की सहायता यदि बिना उससे कुछ प्राप्ति की भावना से सहृदयता पूर्वक की जाए तो वह अवश्य ही फलदायी होती है। ऐसे ही महानात्मा लोगों के पुण्यों के कारण इस धरती पर आज तक मानवता का अस्तित्व आज बचा हुआ है। अन्यथा स्वार्थियों ने इसे बरबाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। वे अपने स्वार्थों को महत्त्व देते हुए लोगों को गलत सन्देश देते हैं। इससे लोगों का विश्वास डगमगाने लगता है जिसे हम किसी भी सूरत में उचित नहीं ठहरा सकते।
चन्द्र प्रभा सूद
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