गुरुवार, 7 जुलाई 2016

प्रकृति में संतुलन

प्रकृति में संतुलन ईश्वर स्वयं बनाकर रखता है। उसे किसी के परामर्श अथवा सहायता की आवश्यकता नहीं होती। उसकी इस सुन्दर रचना में यानि सृष्टि में कहीं कोई कमी नहीं है।
        परमात्मा ने ब्रह्माण्ड में जीवों को भेजते समय एक लाइफ साईकिल का निर्धारण किया है। जीव उत्त्पन्न होगा, फिर बड़ा होगा और अन्त में इस संसार से विदा लेकर अगले पड़ाव यानि नए जन्म की प्रक्रिया से गुजरेगा। जब से इस ब्रह्माण्ड की रचना हुई है, तब से यह क्रम अनवरत चलता जा रहा है। इसमें कहीँ भी, किसी प्रकार की त्रुटि की गुंजाइश नहीं है।
        सूर्य, चन्द्र आदि सभी ग्रह-नक्षत्र आदि सभी का क्रम निश्चित है। कोई प्रातः आकर रात्रि में विदा लेता है तो कोई रात में आकर सवेरे चला जाता है। नदियाँ अपने उद् गम से यात्रा प्रारम्भ करके समुद्र में जाकर विलय हो जाती हैं।
       सृष्टि के सभी जीव-जंतुओं के अन्न-जल की व्यवस्था उसने बहुत ही अच्छे ढंग से की है। सबके भोजन के लिए उस प्रभु ने पेड़-पौधों की उत्पत्ति की जिससे सबको अपने भोज्य पदार्थ मिलते रहें। पेड़-पौधे बहुत अधिक न बढ़ जाएँ, इसके लिए उसने शाकाहारी जीवों की रचना की।
          पशु-पक्षियों के लिए उसने ऐसी व्यवस्था की है जिससे उन्हें हर स्थान पर भोजन मिल सके। हाँ, इन्सान के लिए कुछ अधिक श्रम का प्रावधान रखा ताकि वह उसके लिए जी-तोड़ मेहनत करे और उस मालिक को भी याद करता रहे। पर्वतों की चटटानों और पत्थरों में भी उसने जीवों के लिए भोजन छिपाकर रखा है जिसे वे अपनी जरुरत के समय खा सकें।
         पृथ्वी पर पशुओं की संख्या अधिक न होने पाए इसलिए उसने मांसाहारी जीवों की रचना की। वे शिकार करते हैं और अपना भोजन प्राप्त करते हैं। उन्हें भी बैठे बिठाए भोजन नहीं मिलता बल्कि उन्हें भी इसके लिए संघर्ष करना पड़ता है। कवि ने बड़े सुन्दर शब्दों में कहा है-
       न हि सुप्तस्य सिंहस्य मुखे प्रविशन्ति मृगाः।
अर्थात सोए हुए शेर के मुँह में स्वयं पशु नहीं जाता।
       कहने का तात्पर्य यही है कि अपने भोजन को प्राप्त करने के लिए सभी को संघर्ष करना पड़ता है। उस मालिक ने ऐसा सबके लिए ऐसा प्रबन्ध कर दिया है कि उसे भोजन तो मिले पर उसके लिए परिश्रम करने की शर्त भी लगा दी।
         कहते हैं ‘बड़ी मछली छोटी मछली को खाती है।’ इसका यही अर्थ है कि जलचरों की संख्या बहुत अधिक न हो जाए इसलिए यह विधान रच दिया। इस दुनिया में कहीं पशुओं की अधिकता न हो जाए, अतः शेर, चीते, बाघ जैसे खूँखार जीवों की रचना की ताकि पशुओं का सृष्टि में अनुपात बना रहे। चील, गिद्ध, सियार आदि जीव बनाए जो बचे हुए मांसाहार को साथ-साथ निपटा सकें, जिससे कहीं बदबू न हो। पेड-पौधों का संतुलन बना रहे, इसके लिए शाकाहारी जीवों को बना दिया।
         इन्सानों का अनुपात बिगड़ने न पाए इसलिए प्राकृतिक आपदाओं यानि सुनामी, बाढ़, भूकम्प आदि का समावेश कर दिया। इसके आलावा समय-समय पर अतिवृष्टि, अनावृष्टि, ओलावृष्टि आदि भी होती रहती है जिससे मनुष्यों की जनसंख्या में सन्तुलन बना रहे और आवश्यकता से अधिक आबादी न बढ़ सके।
       अपने घर में देखते हैं कि दीवार पर रेंगने वाली छिपकली मच्छर आदि कीटों को खाती है। जो जीव दूसरे जीवों को खाते हैं, उनके मारने के बाद वही जीव उन्हें खा जाते हैं। जैसे साँप के मारने के बाद चींटियाँ उसे खा जाती हैं। जो अग्नि सब कुछ जलाकर भस्म कर देती है, जब वह बुझ जाती है तो हर कोई उसे रौंद देता है।
        मांसाहारी मनुष्य बहुत गर्व से कुतर्क देते हैं कि इन्सान के लिए ईश्वर ने सभी जीवों को बनाया है, इसीलिए हम उन्हें खाते हैं। यह सच है कि सृष्टि के जीवों से सहायता लेने के लिए ईश्वर ने मनुष्य को सामर्थ्य दी है परन्तु उन्हें मारकर खाने की आज्ञा वह कदापि नहीं देता। उस मालिक ने सभी प्रबन्ध स्वयं किए हुए हैं। उसे सांसारिक मनुष्यों की सहायता की कोई आवश्यकता नही है।
         अतः उसके विधान मेँ अपनी टाँग अड़ाना छोड़ दें। वह बहुत ही समर्थ है उसे हम इन्सानों की सहायता की कोई आवश्यकता नहीं है। बस यह याद रखिए कि वह स्वयं सब सम्हाल सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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