रविवार, 24 जुलाई 2016

मन का अँधेरा दूर करें

बड़े शहरों में प्रायः बिजली रहती है। यदि थोड़ी देर के लिए न भी रहे तो महसूस नहीं होता। इसका कारण है कि घरों में सबने प्रायः इन्वर्टर लगाए हुए हैं। छोटे शहरों और दूर-दराज के इलाक़ों में बिजली की समस्या बहुत विकट है। बिजली कब जाती है और कब आती है, इसका कुछ भी ठिकाना नहीं होता।
       इसी प्रकार के किसी दूर के इलाके में बिजली न होने के कारण एक व्यक्ति ने अपने कमरे में रात के समय रौशनी करने के लिए एक छोटा-सा दीया जला दिया। उसे कुछ बहुत जरुरी कार्य निपटाना था। अतः अपने हाथ में लिए गए आवश्यक कार्य को निपटाकर आधी रात को जब वह थक गया तो उसने सोचा कि अब सो जाना चाहिए।
        उसने फूँक मारकर वह दीया बुझा दिया तो उस कमरे में अँधेरा हो गया है। उसे यह देख कर हैरानी हुई कि जब तक दीया कमरे में जल रहा था तब तक चाँद कमरे के बाहर खड़ा होकर दीये के बुझने की प्रतीक्षा कर रहा था।
         प्रातः कालीन सूर्य हमारे घर के दरवाजे खुलने की प्रतीक्षा में बाहर खड़ा रहता है। ज्यों ही दरवाजा खुलता है वह मुस्कुराता हुआ अपनी रौशनी घर में चारों ओर बिखेर देता है। उसी प्रकार दीये के बुझते ही चन्द्रमा की किरणें उस अँधेरे कमरे में फैल गईं और उसने अपनी शीतल चाँदनी हर तरफ बिखेर दी।
      प्रकृति का यह अलौकिक रूप देखकर उस व्यक्ति के चेहरे पर आश्चर्यमिश्रित भाव आ गया। उसके मन में यह विचार आया कि एक छोटा-दीपक अंधकार का मुकाबला डटकर सकता है। जब तक चाहे उसकी राह का रोड़ा बन सकता है। मनुष्य उस छोटे से दीये की तरह दृढ़प्रतिज्ञ और साहसी क्यों नही बन सकता?
         सूर्य और चन्द्रमा के समान परम तेजस्वी परमात्मा को स्वयं से दूर करने के लिए हमने भी अपने जीवन में इसी तरह के बहुत से छल-प्रपञ्च किए हुए हैं। उसकी सुन्दर छवि यानि उसके दिव्य प्रकाश को निहारने की हम बिल्कुल भी कोशिश नहीं करते। उससे सब कुछ पा जाना चाहते हैं पर उसको पाने के लिए कोई परिश्रम नहीं करना चाहते।
        हम अपने मन में काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार के कारण व्यर्थ ही के दुराग्रह पाले रहते हैं। अपने स्वार्थ में हम अन्धे हो जाते हैं, इस कारण हमें कुछ भी नहीं दिखाई देता। अपने ऊपर हमारा कोई नियन्त्रण नहीं रहता। बिना सोचे-समझे हम अनर्गल प्रलाप करते हैं। हर जीव को तुच्छ समझने की हमारी प्रवृत्ति ही हमारे विनाश का कारण बन जाती है।
        इसलिए हम हर समय अशान्त रहते हैं। उसका दुष्प्रभाव हमारे स्वास्थ्य पर पड़ता है। हमारी कार्यक्षमता प्रभावित होती है। सबसे बढ़कर हमारे ही स्वजन सारे दिन घर के बोझिल माहौल के कारण परेशान होते रहते हैं। घर में नकारात्मक ऊर्जा अपने पैर पसारने लगती है।
       सबसे अधिक खलबली हमारी वाणी मचाती है। उसका बेलगाम हो जाना खतरे की घण्टी बन जाती है। यही वाणी राज कराती है और यही दर-दर की ठोकरें खिलाती है। इसकी कटुता को कोई भी सहन नहीं कर सकता। इसको नियन्त्रण में रखना बहुत आवश्यक होता है अन्यथा जीवन भर पश्चाताप करना पड़ता है।
        जब तक मनुष्य अपनी वाणी को विश्राम नहीं देता तब तक उसका मन शान्त नहीं रह सकता। अशान्त मन में तो ईश्वर का वास नहीं हो सकता। अपने मन को पवित्र बनाने से ही उसमें ईश्वर का निवास बन सकता है। जहाँ तक हो सके अपने मन को भटकने से बचाना चाहिए। जब तक मनुष्य के मन में स्थिरता नहीं होगी तब तक वह अपने अंतस में परमेश्वर की उपस्थिति को अनुभव नहीं कर सकता।
चन्द्र प्रभा सूद
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