बुधवार, 27 जुलाई 2016

मौन साधक की तपस्या का फल

मौन साधक की तपस्या का फल होता है। मौन एक बहुत बड़ा शस्त्र है यानि हथियार है। इसे हम ब्रह्मास्त्र भी कह सकते हैं। मौन की कोई भाषा नहीं होती किन्तु अपने मन की सारी बात समझ देता है। परन्तु जब कभी इसका विस्फोट होता है तब इस ज्वालामुखी की आँच से चारों ओर भयंकर तबाही मच जाती है। उस समय उस आँच से बच पाना किसी के लिए भी सम्भव नहीं होता।
          मौन का महत्त्व समझती एक घटना मुझे स्मरण हो रही है। एक बार कबीरदास जी और रैदास जी ने परस्पर मिलने का कार्यक्रम बनाया। उन दोनों के शिष्य बहुत प्रसन्न हुए कि गुरुजनों की इस विशिष्ट ज्ञानचर्चा का लाभ उन्हें भी मिलेगा।
        तीन दिन तक कबीर जी और रैदास जी प्रातः से सायं तक एक कक्ष में बैठे रहते थे और उनके शिष्य दरवाजे पर कान लगाकर खड़े रहते थे कि उनके कानों में इस ज्ञान चर्चा का कुछ अंश पड़ जाए और वे लाभान्वित हो सकें। उनका सारा श्रम व्यर्थ चला गया क्योंकि इन तीन दिनों में उन दोनों ने कुछ बोला ही नहीं।
         तीन दिन के पश्चात वे दोनों अपने शिष्यों के साथ वापिस लौटने लगे, तब शिष्यों ने उनसे पूछा - तीन दिन तक एक कमरे में आप लोग बैठे रहे परन्तु आप दोनों ने कोई बात नहीं की और अब बिना बात किए ही वापिस जाने लगे हैं।
        कबीर जी ने कहा कि हमने न बोलते  हुए भी एक-दूसरे से बहुत-सी बातें कर ली हैं। जो बातें मैंने अपने मन से रैदास जी को कहीं वे उन्होंने समझ लीं। इस प्रकार जो बातें उन्होंने मुझसे अपने मन के माध्यम से मुझे कहीं वे मैंने समझ लीं। यह है मौन की वास्तविक परिभाषा जो बिना कुछ कहे सब कुछ कह देती है।
        ज्ञानी इसकी महत्ता समझ लेता है और अज्ञानी इस मौन की खिल्ली उड़ाकर अपनी मूर्खता दर्शाता है। अपनी बात कहने के लिए आवश्यक नहीं कि ढेर सारे शब्दों का आदान-प्रदान ही किया जाए।
       हम सबने अनुभव किया है कि माँ जब बच्चे से नाराज होती है तो कहती मैं तुमसे बात नहीं करूँगी तब बच्चा यह नहीं सहन कर सकता कि उसकी माँ उससे बात न करे। इसी प्रकार कक्षा में जब शरारती बच्चे को सजा दी जाती है तो कहा जाता है मुँह पर अँगुली रखकर कक्षा के कोने में खड़े हो जाओ।    
        पति-पत्नी में यदि मौन पसरने लगे तो उनके बीच होने वाले अबोलेपन के कारण उनमें अलगाव तक हो जाता है। इससे परिवार बिखर जाता है जिसका भुगतान आयुपर्यन्त बच्चों को कारना पड़ता है।
       मौन रहकर भी अपनी बात दूसरे तक पहुँचाई जा सकती है। इसे कहते हैं आध्यात्मिकता की पराकाष्ठा, जहाँ शब्द मौन हो जाते हैं और मौन स्वयं ही मुखरित होने लगता है।
           मौन एक बहुत कठिन साधना है। इसका कारण है कि मनुष्य अधिक समय तक बिना बोले नहीं रह सकता। कुछ लोग तो एक वाक्य में अपनी बात न कह पाने जे कारण अनेक वाक्य एक साथ बोल जाते हैं। इस व्रत का पालन करना खाला जी घर नहीं है।
        ऋषि-मुनि आध्यात्मिक उन्नति करने के लिए इस मौन की साधना किया करते हैं। मनुष्य जितना अधिक मौन रहता है, उतनी ही उसकी आध्यात्मिक शक्ति बढ़ती है। अधिक बोलने वाला मनुष्य अनर्गल प्रलाप करने लगता है जो उसके तिरस्कार का कारण बनती है।
          मौन से मनुष्य की वाणी अधिक धारदार हो जाती है। उसमेँ एक प्रकार का ओज आने लगता है और उसका प्रभाव दूसरों पर पड़ता है। संभव हो तो प्रतिदिन इसका अभ्यास करना चाहिए।
        इसी प्रकार यदि मनुष्य ईश्वर से मौन संवाद कर सके तो उसके इहलोक और परलोक दोनों ही संवर जाएँगे और तब उसके जन्म-मरण के बन्धनों को कटने से कोई नहीं रोक सकेगा। फिर यह संसार और उसके कार्य-व्यव्हार सब यहीं धरे रह जाएँगे। उसके साथ बस ईश्वर का साथ रह जाएगा यानि वह उसी परमात्मा में लीन होकर मुक्त हो जाएगा।
चन्द्र प्रभा सूद
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