सोमवार, 25 जुलाई 2016

त्रिविध तापों से मुक्ति

संसार में जन्म लेने वाले सभी मनुष्यों को त्रिविध तापों से दो-चार होना पड़ता है। ये किसी का भी पक्षपात नहीं करते और एकसमान रूप से सबको त्रसित करते हैं।  त्रिविध ताप हैं - आधिभौतिक, आधिदैविक, एवं आध्यात्मिक। आज इन सबके विषय में जानने का प्रयास करते हैं।
       आधिभौतिक ताप सांसारिक वस्तुओं अथवा जीवों से प्राप्त होने वाला कष्ट होता है। इस संसार में रहने वाले हर जीव का स्वभाव भिन्न होता है। वह कब और किस समय अपनी कोई भी क्या प्रतिक्रिया दे दे, इस विषय में कहा नहीं न सकता। उसने जो भी कहा, हो सकता है कि वह किसी के मन को आहत कर जाए। इससे उस व्यक्ति की मानसिक पीड़ा का अनुमान कोई नहीं लगा सकता।
         घर-परिवार, भाई-बन्धुओं एवं कार्यालयीन समस्याओं को सुलझाना भी अपने आप में टेढ़ी खीर है। उन सबको सुरक्षित रखने यानि उन्हें गर्म हवा का झोंक तक न लगे इस सोच के चक्कर में मनुष्य नाना कष्टों को सहन करने के लिए विवश हो जाता है।
          आधिदैविक ताप दैवी शक्तियों द्वारा दिये गये या पूर्वजन्मों में स्वयं के किए गये कर्मों से प्राप्त कष्ट कहलाता है। मनुष्य जब जन्म लेता है तो उसका भाग्य उसके साथ ही इस धरा पर आ जाता है। इस सृष्टि के प्रारम्भ से इस वर्तमान जन्म तक न जाने कितने ही जन्म उसने लिए होते हैं। उन सभी जन्मों में किए गए उसके सुकर्मो और दुष्कर्मो के फल का भुगतान तो उसे करना ही पड़ता है।
         उन सब शुभाशुभ कर्मो का फल भोगते हुए कई प्रकार के उतार-चढावों को पार करना मानो उसकी नियति बन जाती है। इसके साथ-साथ अतिवृष्टि, अनावृष्टि, ओलावृष्टि, सुनामी, बाढ़, भूकम्प आदि दैविक तापों उसे सताते रहते हैं, मनुष्य को उनसे मुक्ति नहीं मिलती जब तक वह इन सब को भोग नहीं लेता।

सांसारिक विघ्न-बाधाएँ भी उसे कदम-कदम पर डराती रहती हैं और तब मनुष्य विवश होकर अपने खोल में सिमट जाता है। इसे ही वह अपने भाग्य का फैसला मानकर अपना सर झुक लेता है।
       आध्यात्मिक ताप अज्ञान जनित कष्ट होते हैं। मनुष्य जब तक ज्ञानार्जन नहीं करता तब तक वह संसार में तिरस्कृत होता रहता है। हर दूसरा इन्सान उसे दुत्कार करके चला जाता है।
        वह व्यक्ति विद्वानों की सभा में उसी प्रकार सुशोभित नहीं होता जैसे हंसों की सभा में कौआ। यह कष्ट उसके लिए असहनीय होता है। जब तक मनुष्य स्वाध्याय नहीं करेगा और सज्जनों की संगति में नहीं रहेगा तब तक वह अपनी अज्ञानता को कोसता रहेगा।
         आध्यात्मिक ताप दूर करने के लिए मनुष्य को ईश्वर के समीप जाना चाहिए। भगवद् प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील बनना चाहिए। यम-नियम के साथ-साथ धर्म के नियमों का भी पालन करना चाहिए। धर्म के लक्षण हैं -
धृति क्षमा दमोSस्तेयं शोचमिन्द्रियनिग्रहः।
धी विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥ अर्थात धैर्य, क्षमा, संयम, चोरी न करना, पवित्रता, इन्द्रियों का संयम, सद् बुद्धि, विद्या, सत्य बोलना, क्रोध न करना- धर्म के दस लक्षण हैं।
        इनके अतिरिक्त ईश्वर से कष्ट से मुक्ति दिलाने के लिए सच्चे मन से प्रार्थना करनी चाहिए। तन्त्र-मन्त्र वालों से परहेज करना चाहिए। तथाकथित गुरुओं और तीर्थो में जाकर अनावश्यक रूप से नहीं भटकना चाहिए।
         ईश्वर से शान्ति के लिए प्रार्थना करनी चाहिए। उसका उच्चारण करने मात्र से मनुष्य के त्रिविध तापों के कष्टों का शमन होता है। जीवन के हर पल का सदुपयोग करते हुए मनुष्य को परमपिता परमात्मा की शरण में जाना चाहिए। वही सबको उनके कष्ट और परेशानियों से मुक्ति दिलाने वाला है। इसीलिए भगवान कृष्ण ने मनुष्य को गीता में समझते हुए कहा है- ‘मामेकं शरण व्रज’ अर्थात बस केवल मेरी शरण में आओ।
चन्द्र प्रभा सूद
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