बुधवार, 6 जुलाई 2016

दान देना कर्तव्य

दान के महत्त्व को हमारे मनीषी भली-भाँति समझते थे। इसीलिए उन्होंने हमें बताया की हर शुभकार्य को करते समय दान करना चाहिए। इसके अतिरिक्त किसी भी दुःख-तकलीफ से उभरने के पश्चात् भी दान देना चाहिए। अपने मन की शांति के लिए भी हर मनुष्य को अपनी शुद्ध कमाई में से कुछ धन अलग निकाकर रखना चाहिए और उसे दान में भी देना चाहिए।
         समाज में रहते हुए मनुष्य दूसरों से बहुत कुछ ग्रहण करता है क्योंकि सदा से ही वह एक समाजिक प्राणी है। उसके बदले में उसे समाज के हितार्थ कुछ-न-कुछ अपना योगदान करते रहना चाहिए। उनमें दान देना भी प्रमुख है। दान करने के विषय में मुझे कबीरदास जी का एक दोहा याद आ रहा है-
               चिड़ी चोंच भर ले गई नदी न घटयो नीर।
               दान देत धन न घटे कह गए दास कबीर।।
अर्थात नदी में जल का भण्डार होता है पर यदि चिडिया उसमें से कुछ बूँदे जल की ले लेती है तो उसके जल में कोई कमी नहीं आती, वह खाली नहीं होती।
          इस प्रकार अपनी कमाई में से कुछ राशि यदि समाजिक और धार्मिक कार्यो पर व्यय की जाए तो वह धन सार्थक हो जाता है। धन का दान किसी प्रभावशाली व्यक्ति को देखकर नहीं करना चाहिए अथवा न ही किसी के दबाव में आकर करना चाहिए। साथ ही किसी की होड़ में आकर भी दान नहीं करना चाहिए। मन में पूर्ण श्रद्धाभाव और अपना कर्तव्य मानकर दान देना चाहिए।
         दान देते समय यह भी सावधानी बरतनी चाहिए कि दान सुपात्र को ही देना चाहिए ताक़ि वह उसका सदुपयोग करे। यदि दान कुपात्र को दिया जाए तो वह उसका दुरुपयोग करेगा। इस तरह दिया गया धन व्यर्थ हो जाता है, तब फिर अपने मन को भी कष्ट होता है।
        दान देते समय कर्त्तापन का अभिमान मन में कदापि नहीं आना चाहिए। हालाँकि यह इन्सानी कमजोरी है कि वह चाहता है सभी लोग उसके इस कार्य को महत्त्व दें, उसकी सराहना करे और सम्मान दे। जिसकी सहायता की है वह सारी आयु नजरें न मिला सके अथवा हमेशा उसके सामने सिर झुककर रहे। ऐसी सोच को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना चाहिए और यथासंभव अहं से बचने का प्रयास करना चाहिए।
        यदि मनुष्य इस बात को आत्मसात कर लेना चाहिए कि देने वाला तो वह ईश्वर है, इन्सान तो बस दान देने का एक माध्यम है। तब कभी उसके मन में यह अभिमान नहीं आ सकेगा कि दान उसने दिया है या उसने किसी की सहायता की है।
         दान देने का लाभ तभी होता है जब अपना कर्त्तव्य समझकर दान दिया जाए। हमारे मनीषी कहते हैं कि दाएँ हाथ से दान दो तो बाएँ हाथ को पता न चले। दूसरे शब्दों में कहेँ तो दान को गुप्त रूप से देना चाहिए और स्वयं को भी उसके बारे में याद न रहे।
        इसी भाव को रहीम जी ने बड़े ही सुन्दर शब्दों में लिखते हैं-
            देन हार कोई और है भेजत जो दिन रैन।
            लोग भरम हम पर करें तासो नीचे नैन।।
अर्थात देने वाला तो कोई ओर है जो हमें दिन-रात देता रहता है। लोगों को व्यर्थ ही भ्रम हो जाता है कि हम देने वाले हैं। इसीलिए दान देते समय उनकी नजरें झुक जाती थीं।
         देवताओं की रक्षा के लिए अपनी हड्डियों का दान करने वाले महर्षि दधिचि को हम सब जानते हैं।  दानवीर कर्ण को कौन भूल सकता है। इतिहास भरा हुआ है ऐसे महापुरुषों की गाथाओं से।
        धन के दान को सर्वाधिक महत्त्व इसलिए दिया जाता है कि उसके बिना कोई भी कार्य सम्भव नहीं होता। अन्न, वस्त्र, श्रम आदि के दान का भी महत्त्व का नहीं है। मनुष्य यदि नए वस्त्र नहीं दान कर सकता तो ऐसे वस्त्र देने चाहिए जिन्हें कोई पहन सके और कुछ समय के लिए वह अपना तन ढक सके।
         विद्या के दान का शास्त्रों में सबसे अधिक महत्त्व माना जाता है। इससे एक भावी पीढ़ी संस्कारित होती है जो देश का भविष्य होती है। इसलिए निस्वार्थ भाव से दान देते रहना चाहिए। इससे मनुष्य के इहलोक और परलोक दोनों ही सुधरते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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