मंगलवार, 5 जुलाई 2016

कंक्रीट के जंगल

कंक्रीट के जंगल में रहते-रहते हम सभी शहर वासी संवेदना से रहित होते जा रहे हैं। ऊँची-ऊँची बहुमंजिली इमारतें हमारी प्रगति व वैभव का प्रतीक हैं। एक जैसे बने ये आलिशान भवन मानो हमें मुँह चिढ़ा रहे हैं।
       इनमें रहने वाले हम दिन-प्रतिदिन अपने में सिमटते जा रहे हैं। मैं, मेरे बच्चे और मेरा परिवार बस। इसके आगे हमारी सोच अपने दरवाजे बंद कर लेती है। आज हम मात्र केवल यही सोचते हैं कि अमुक व्यक्ति से संबंध रखने से मुझे क्या लाभ मिलेगा? जहाँ लाभ नहीं वहाँ संबंध भी नहीं चाहे रक्त संबंध ही क्यों न हों? अगर वे हमारी कसौटी पर खरे न उतरें तो हम उनसे किनारा करने में भी नहीं हिचकिचाते। हमें किसी मित्र-संबंधी की भी परवाह नहीं है। हम बस अपने में सिमट कर रहना पसंद करते हैं।
      अपने आसपास की हमें कोई चिन्ता नहीं। पड़ौसी के घर में कोई सुख है या दुख, उनके घर चूल्हा जला या नहीं हम इन सबसे अनजान हैं। या यूँ कहें कि हम ये सब जानना ही नहीं चाहते। हमारे द्वार पर कोई याचक आ जाए तो उसे अपमानित करके भगा देते हैं। और अपनी जरूरत होने पर गधे को भी बाप बनाने में नहीं हिचकिचाते।
       कंक्रीट के जंगल में ईंट, पत्थर, सीमेन्ट, लौहे आदि की तरह हमारे मन भी कठोर बनते जा रहे हैं। हमारे सामने चाहे किसी का एक्सीडेंट हो जाए या चाहे कोई मर भी जाए तो हमारे दिल नहीं पसीजते।
यदि हम हरियाली वाले जंगलों में रहते तो शायद हमारे हृदयों में संवेदनाएं बनी रहतीं और हम इतने निष्ठुर न होते।
         'वसुधैव कुटुम्बकम्' की विशाल दृष्टि वाले हम अपने संकुचित दृष्टिकोण के कारण अपने जीवन मूल्यों से दूर होते जा रहे हैं।
        हमें यत्न पूर्वक अपने आपको सहिष्णु व सहृदय बनाना होगा तभी सामाजिक प्राणी वाली छवि पर फिर से खरे उतर सकेंगे।
चन्द्र प्रभा सूद
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