गुरुवार, 14 जुलाई 2016

इन्सान सब समेटना चाहता

प्रत्येक इन्सान के मन में यही विचार हावी रहता है कि इस संसार के हर पदार्थ पर उसकी मोहर लग जाए। दूसरे शब्दों में वह यही चाहता है कि दुनिया की हर वस्तु बस उसकी हो जाए। कोई दूसरा उसकी तरफ आँख उठाकर देखे तक नहीं। उसके सिवा हर दूसरा व्यक्ति उन सभी सुविधाओं से वंचित रहे और उससे ईर्ष्या करे।
          अब विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या ऐसा सम्भव हो सकता है? क्या एक ही व्यक्ति को संसार की सारी नेमतें मिल जाएँ और बाकि सब लोग उसका मुँह देखते रह जाएँ?
          इन प्रश्नों के उत्तर में शायद आप सभी कहेंगे कि ऐसा किसी भी सूरत में नहीं हो सकता। एक ही व्यक्ति को सारी सुख-सुविधाएँ क्योंकर मिल जाएँ। इस तरह तो संसार के अन्य सभी लोगों के साथ अन्याय हो जाएगा। उन सबने ऐसा कोई गुनाह नहीं किया कि उनके साथ ऐसे ही सौतेला व्यवहार किया जाए।
        अपने एक घर में भी ऐसा नहीं होता। वहाँ भी सारे सुख-आराम घर में रहने वाले सभी सदस्यों को बराबर ही दिए जाते हैं। यदि किसी के साथ नाइंसाफी होती है तो घर में तूफान आ जाता है।
      जब एक घर का मुखिया ऐसा अन्याय अपने घर के किसी एक सदस्य के साथ नहीं कर सकता तो फिर सृष्टि का मालिक जो परम न्यायकारी है, वह कभी भी किसी के साथ ऐसा पक्षपात नहीं कर सकता। संसार के सभी जीवों पर उसकी समदृष्टि रहती है।
         इस दुनिया का हर व्यक्ति यदि यही सोचने लगे या स्वार्थी बन जाए तब तो चारों ओर हाहाकार मच जाएगा। सब कुछ अपना कर लेने की हवस में लूटपाट होने लगेगी। हर तरफ भागमभाग दिखाई देगी तथा कहीं भी शान्ति नहीं रहेगी।
         महासुभाषित संग्रह में बड़े ही सुन्दर शब्दों में इसी भाव को बताया है-
         आत्मापिन चायं न मम  सर्वा वा पृथिवीन मम।
         यथा मम तथान्येषां इति बुद्ध्या न मे व्यथा।। 

अर्थात् - हमें कभी भी यह नहीं सोचना चाहिये कि यह पृथिवी (जमीन जायदाद) और अन्य सब कुछ मेरा हो जाये। यदि हम यह समझ जाएँ कि हमारी तरह और  लोग भी यही सोच सकते हैं तो फिर हमें अपने जीवन में व्यर्थ में कष्ट नहीं उठाना पड़ेगा ।
         यह श्लोक भी मेरे विचारों पर अपनी मोहर लगा रहा है कि इस धरती की सारी धन-दौलत किसी एक व्यक्ति को किसी भी सूरत में नहीं मिल सकती। इस पृथ्वी पर जो कुछ भी है वह सभी जीवों का है। हर जीव को पूर्वजन्म कृत कर्मो के अनुसार ही उसे उसके हिस्से का धन-वैभव व ऐशो-आराम मिलता है।
        यदि हर व्यक्ति यह समझ जाए कि उसकी तरह और  लोग भी ऐसी संकुचित सोच वाले बन जाएँ तो फिर उन्हें अपने जीवन में व्यर्थ ही कष्ट नहीं उठाना पड़ेगा। तब उन सबको न पा सकने का गम भी नहीं होगा।
         मनुष्य को अपने मन में उठने वाली अपनी सभी कामनाओँ की पूर्ति के लिए सच्ची लगन और ईमानदारी से प्रयास करते रहना चाहिए। उसे दूसरों के ऐश्वर्य को देखकर न ईर्ष्या करनी चाहिए और न ही दूसरे की धन-सम्पत्ति पर कुदृष्टि डालनी चाहिए। इससे वह अपनी ही हानि कर बैठता है। दूसरे को तो कोई अन्तर नहीं पड़ता पर हाँ अपना मन अवश्य दुखी कर लेता है।
         सकारात्मक सोच तो यही है कि दूसरों की उन्नति में प्रसन्न होना चाहिए। जिन्दगी का सरल-सा गणित है कि जो परिश्रम करेगा, दिन-रात एक करेगा वही फल पाएगा। दूसरों को किसी भी क्षेत्र में पीछे छोड़ने के लिए उनसे भी अधिक श्रम करके उनसे अधिक सफल बनिए। यानि की दूसरे की लाइन को मिटाने के स्थान पर अपनी लाइन बड़ी खींचिए।
         इस जीवन का सार यही है कि अपने परिश्रम और भाग्य के कारण ही मनुष्य इस आसार संसार में भौतिक संसाधनों को प्राप्त करता है। इसलिए दूसरों की उन्नति को देखकर अपना सिर धुनने और अन्यों के साथ-साथ ईश्वर को दोष देने के स्थान पर प्रसन्न होइए और अपने लिए उस मालिक से प्रार्थना कीजिए कि वह आपको भी समर्थ व सफल बनाए।
चन्द्र प्रभा सूद
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