शनिवार, 16 जुलाई 2016

विद्वान बनने की इच्छा

प्रत्येक मनुष्य की हार्दिक इच्छा होती है कि वह बुद्धिमान कहलाए। विद्वान उसकी बुद्धि का लौहा मानें। किसी सभा में यदि वह जाए तो उस विद्वत सभा में उसकी ही चर्चा हो। सभी उससे अपना सम्बन्ध बनाने के लिए इच्छुक रहें।
         अब हम विचार करते हैं कि विद्वत्ता की कसौटी क्या है? मनुष्य को बुद्धिमान बनने के लिए कुछ तथ्यों की ओर ध्यान देना आवश्यक हैं-
         सबसे पहली अथवा प्रमुख बात है मनुष्य का विचरवान होना। उसे मननशील होना चाहिए। जब वह एकान्त में बैठकर विचार करता है तो उसे करणीय और अकरणीय का बोध हो जाता है। उसी के अनुरूप अकरणीय कार्यों का परित्याग करके और करणीय कार्यों के आलम्बन से दिन-प्रतिदिन उन्नति करता हुआ सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ता जाता है।
         सज्जनों का अनुकरण करना और विद्वानों की संगति में रहना बहुत आवश्यक होता है। इससे मनुष्य में एक प्रकार का ठहराव आता है। उसका व्यवहार सबके साथ प्रायः सन्तुलित होने लगता है। उसके मन में व्यष्टि (एक) के स्थान पर समष्टि (सबका) का भाव आने लगता है।
        वह अपने नकारात्मक विचारों के जंजाल से मुक्त होकर सकारात्मक मनोवृत्ति वाला हो जाता है। इस तरह वह ईर्ष्या-द्वेष आदि दुर्भावनाओं के परित्याग करने से महापुरुषों की श्रेणी में आ जाता है।
         मनुष्य के लिए उचित यही है कि वह अपनी योग्यता और अनुभव को घर-परिवार, बन्धु-बान्धवों, देश और समाज में बाँटे। इससे उसे अपना जीवन संवारने के साथ-साथ दूसरों को भी मार्गदर्शन करना चाहिए। समाज को ऐसे मनीषियों की बहुत आवश्यकता है जो निस्वार्थ होकर उसकी भलाई के कार्य कर सकेँ।
        आजकल राजाओं का युग नहीं है फिर भी हम देश के प्रथम नागरिक यानि राष्ट्रपति को इस श्रेणी में मान सकते हैं। मनीषियों का विद्वानों के सम्मान के विषय में यह मानना है -
        स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते।
अर्थात राजा का सम्मान उसके अपने देश में होता है परन्तु विद्वान को हर स्थान पर मान दिया जाता है।
         हम देखते हैं कि हमारे देश के उच्च शिक्षा प्राप्त वैज्ञानिक, इंजीनियर, डॉक्टर आदि विश्व के किसी भी देश में चले जाएँ उन्हें सर्वत्र सिर-आँखों पर बिठाया जाता है और उन्हें समानरूप से सम्मान दिया जाता है। अच्छे वेतनमान पर उनकी नियुक्तियाँ होती हैं।
         तात्पर्य यही है कि विद्वान किसी भी आयु का हो वह पूजनीय होता है। विद्वत्ता के समक्ष आयु कोई मायने नहीं रखती, वह गौण हो जाती है।
          यदि कोई व्यक्ति यह सोचे कि विद्वत्ता न होने पर, उसका ढोंग कर लेने से वह विद्वानों की श्रेणी में आ जाएगा तो यह उस मनुष्य की भूल है। मूर्ख व्यक्ति जब मुँह खोलेगा तो उसकी पोल संस्कृत भाषा के विश्व सुप्रसिद्ध विद्वान् महाकवि कालिदास की तरह स्वयं ही खुल जाती है। तब दूसरों से तिरस्कृत होने पर उनकी स्थिति दयनीय हो जाती है। इसका कारण है कि काठ की हाँडी बार-बार नहीं चढ़ती।
         विद्वानों को यह सिद्ध करने की या प्रचार करने की कोई आवश्यकता नहीं होती कि वे बहुत जानकार हैं। लोग उनके प्रचारतन्त्र से प्रभावित होकर उनसे कुछ सीखें। होता इसके विपरीत है, लोग ढूँढते हुए उनके पास आकर अपनी ज्ञानपिपसा शान्त करते हैं।
         विद्वानों की विद्वत्ता कस्तूरी की गन्ध की भाँति होती है जिसे चाहे सात परदों में भी छुपाकर क्यों न रखो, वह चारों ओर के वातावरण को सुगन्धित कर ही देती है।
         विद्वत्ता मनुष्य को ईश्वर का दिया हुआ उपहार है। परन्तु फिर भी कठोर परिश्रम, स्वाध्याय, मनन, सज्जनों की संगति और ईश्वर की उपासना करके निस्संदेह प्राप्त किया जा सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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