सोमवार, 4 जुलाई 2016

जीवन की रेस में सफलता

जीवन की रेस में सफलता प्राप्ति के लिए हर मनुष्य अपने हाथ-पैर मारता है। उसके बाद भी यदि ऐसा लगे कि पास आती हुई सफलता रूठकर कहीं दूर चली जा रही है और हाथ नहीं आ रही तब उसे अपने प्रयासों में परिवर्तन लाने की आवश्यकता होती है।   
        भाग्य पर अन्धविश्वास न करके अपने उद्देश्यों को मजबूत बनाना चाहिए और अपने कर्म पर भरोसा करना चाहिए और स्वयं की सामर्थ्य पर ही विश्वास करना चाहिए। जीवन में कुछ बातें या घटनाएँ अवश्य ही संयोगवश हो जाती हैं पर हमेशा ऐसा नहीं होत।
        दृढ़ विश्वास और अपनी सामर्थ्य का सदुपयोग करते हुए अपने लक्ष्य की ओर कदम बढ़ाने वालों को कभी असफलता का मुँह नहीं देखना पड़ता। हाँ, कभी क्षणिक अवसाद अवश्य हो सकता है परन्तु उसका परिणाम सदा ही सुखदायी और परिवर्तन लाने वाला होता है।
          अपने लक्ष्य को पाने के इच्छुक साहसी लोग असफलताओं से निराश नहीं होते। जब तक मन-मस्तिष्क सुनियोजित रहेगा यानि उनमें तालमेल बना रहेगा तो तब तक मनुष्य की भावनाएँ उसी के अनुरूप ही जन्म लेंगी।
           मनुष्य की उर्जा, उसकी शक्ति का यदि सही दिशा में उपयोग होगा तो शरीर भी अपनी गति में आ जाता है। मनीषी कहते हैं कि मनुष्य अपने भाग्य का रचयिता स्वयं होता है। यह सर्वथा उचित है। मनुष्य जब अपने मजबूत इरादों, दृढ़ विश्वास, सुनियोजित मन-मस्तिष्क और एक निश्चित गति से आगे बढ़ेगा तो ब्रह्माण्ड की कोई भी ताकत उसे पछाड़ नहीं सकती।
        मनुष्य के विचारों में, उसकी सोच में स्पष्टता और परिपक्वता का होना बहुत आवश्यक होता है। उसका आत्मविश्वास कभी डगमगाना नहीं चाहिए। अपने लक्ष्य तक पहुँचने के लिए मनुष्य को एकान्त में बैठकर विवेकपूर्वक योजना बनानी चाहिए और उसे सही समय पर क्रियान्वित करना चाहिए।
         यदि उसकी योजना में ही कमी रह जाएगी तो उसकी सफलता पर प्रश्नचिह्न लगना स्वाभाविक है। मनुष्य को उत्साही बनना चाहिए पर अति उत्साही नहीं होना चाहिए। ऐसा करके वह अपने ही दुर्भाग्य को स्वयं न्यौता दे बैठता है जिसके लिए आयुपर्यन्त उसे हाथ मलते ही रह जाना पड़ता है।
           मनुष्य को चाहिए की वह उन सबको अपने साथ लेकर चले जिन्हें वह पसंद हैं। जो उसे नापसंद हैं उनका त्याग न करके ऐसा कुछ करे कि वे स्वेच्छा से उसके साथ जुड़ने के लिए तैयार हो जाएँ। जीवन में पता नहीं कब किस मोड़ पर उसे उनकी भी जरूरत पड़ जाए। उस समय वह स्वयं को सबसे भाग्यशाली इन्सान समझेगा।
          किसी को भी अपने जीवन मैं सदा एक जैसी परिस्थितियाँ नहीं मिलतीं।धूप-छाँव का खेल चलता रहता है। उन सभी स्थितियों को सम रहकर सहन करना ही बुद्धिमत्ता है। भगवन श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता में इसे द्वन्द्व सहन करना कहा है।
           मनुष्य को व्यपरियों की तरह जमा-घटा का पहाड़ नहीँ पढ़ना चाहिए। उसके ये विचार उसकी सोच को संकुचित बना देते हैं। उसे महान बनने के स्थान पर सबका प्रिय बनने का यत्न करना चाहिए। महान तो वह अपने सत्कार्यो से बन ही जाता है।
         अपनी क्षमताओं के अनुसार यदि वह अपनी उन्नति की ओर ध्यान देगा तो उसका व्यक्तित्व स्वयं ही निखरकर दुनिया के सामने आ जाएगा। उसे संसार सधारण से असाधारण या महान बना देता है। तब वह महापुरुषों की श्रेणी में गिना जाता है। उसके दिशा-निर्देशों की अनुपालना करके लोग स्वयं को धन्य मानते हैं।
        मनुष्य यदि कछुए की तरह कर्मठता, आत्मविश्वास, निष्ठा व लग्न से आगे बढ़ने लगे तो तरह खरगोश जैसे तीव्रगामी लोगों को पछाड़कर अपनी सफलता के झंडे गाड़ सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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