बुधवार, 1 अप्रैल 2015

पितृयज्ञ

पितृयज्ञ पञ्चमहायज्ञों में महत्त्वपूर्ण यज्ञ है जो हमें इस संसार में हमारे जन्मदाता हमारे माता-पिता के प्रति हमारे दायित्वों का स्मरण कराता है। माता-पिता हमें इस संसार में लाकर हम पर महान उपकार  करते हैं। उनके इस ॠण को मनुष्य चुका नहीं सकता चाहे वह सारी आयु उनकी सेवा करता रहे। माँ पालन-पोषण करती है, स्वयं गीले में रहकर हमारे सुख का ध्यान रखती है। वह हमें अक्षर ज्ञान भी कराती है। वह हमारी प्रथम गुरू है, महान है और पूज्या है। पिता हमारा पोषक है इसलिए वह आकाश से भी ऊँचा है और महान है।
      हमारी संस्कृति में बच्चे के पैदा होते ही यह संस्कार कूट-कूट कर भरे जाते हैं कि उन्हें बड़े होकर अपने वृद्ध हो रहे माता-पिता की सेवा करनी है। प्रायः बच्चे अपने माता-पिता की परवाह करते हैं उनकी सुविधाओं का ध्यान रखते हैं।
         कुछ मुट्ठी भर ऐसे बच्चे हैं जो बच्चे अपने कर्त्तव्य से विमुख हो रहे हैं समाज उन्हें आज भी हिकारत की नज़र से देखता है। दो वक्त की रोटी को अगर माता-पिता तरसें तो बच्चों के करोड़पति या अरबपति होने को धिक्कार है। ऐसी दुर्दशा जिनकी होती है वे अपने भाग्य को कोसते हैं कि ईश्वर ने उन्हें ऐसी संतान क्यों दी? वे संतानहीन रहते तो अच्छा था।
          बच्चे कितना भी कमाने लगें अथवा ओहदे में कितने भी बड़े हो जाएँ अपने ऐसे माता-पिता की अवहेलना करने का उन्हें हक समाज नहीं देता। किसी भी सभ्य समाज में यह अपेक्षित नहीं है कि बच्चे ऐश करें और उनके माता-पिता दरबदर होकर ठोकरें खाएँ या पैसे-पैसे के मोहताज हो दवा तक को तरसें।
        मंदिरों में जाकर पत्थर के भगवान के आगे माथा रगड़ें परंतु घर में बैठे जीवित माता-पिता की जिन्हें हमारे ग्रन्थ देवता मानते हैं की अवहेलना करना कदापि मान्य नहीं।
        बच्चे माता-पिता से उम्मीदें रखते हैं। उनके पास जो भी धन-संपत्ति या कारोबार है, सब समेटना चाहते हैं। माता-पिता को उनके कर्तव्य याद दिलाना चाहते हैं परंतु अपने दायित्वों से विमुख होना चाहते हैं। आजकल विदेशियों की नकल पर माता-पिता को ओल्ड होम में भेजने का प्रचलन बढ़ रहा है जो भारतीय सांस्कृतिक विचारधारा के विपरीत है।
        दोनों पति-पत्नी यदि कमाते हैं तो भी माता-पिता के लिए उनके पास पैसे नहीं बचते जबकि अपने खर्च में उनकी कोई कमी नहीं होती। उनके अपने सभी कार्य निश्चित ढर्रे पर चलते रहते हैं। व्यापारी भी माँ-पापा का जमा-जमाया कारोबार सम्हाल कर उन्हें बुरा कहने लगते हैं।
        अपने बच्चों को ऐसे आदर्श सिखाएँ कि वे अपने माता-पिता का अनादर करने की हिम्मत न कर सकें। वे समाज के डर से नहीं अपने मन से माता-पिता की सेवा करें और उनके प्रति अपने दायित्वों को पूरा करें न कि उनके मरने के पश्चात लाखों रुपये अपनी शान बघारने व नाक ऊँची करने के लिए खर्च करें।
        माता-पिता के लिए सुखों का बलिदान कर उनके लिए जीने और सुख-साधनों को जुटाने वाली संतानें आज भी हैं।
        कुछ विद्वान पितृयज्ञ का अर्थ मृत पितरों का श्राद्ध व तर्पण करना मानते हैं जो मेरे विचार में उचित नहीं। पुनर्जन्म सिद्धांत के अनुसार मृत्यु के पश्चात जीव का अपने कर्मानुसार निश्चित अवधि के बाद जन्म हो जाता है। तो फिर जिसका जन्म हो गया उसका श्राद्ध व तर्पण कैसा?
इसका अर्थ मुझे यही उचित प्रतीत होता है कि श्रद्धापूर्वक माता-पिता को तृप्त करना।
       विद्वान कोई भी अर्थ करें पर सत्य यही है कि माता-पिता हमारे जीवित देवता हैं जिनकी नियम से पूजा करना आवश्यक है। इसके लिए कभी भी कोताही नहीं करनी चाहिए।

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