सोमवार, 6 अप्रैल 2015

यथा राजा तथा प्रजा

हम सब अक्सर सुनते हैं-  'यथा राजा तथा प्रजा' इस उक्ति का अर्थ है कि प्रजा वैसी होती है जैसा राजा होता है। सत्ता पर आसीन राजा के चाल-चलन अथवा चरित्र का प्रभाव प्रजा पर अवश्य पड़ता है।
         आजकल शासनकर्त्ता राजा तो नहीं रहे परन्तु सत्ता जिसके अधिकार में है या जो देश पर शासन कर रहा है उसे हम यहाँ राजा कहकर संबोधित कर लेते हैं।
       राजा यदि सदाचारी होता है तो प्रजा में भी सदाचार बढ़ता है। राजा के अनुसार ही प्रजा में नैतिकता, ईमानदारी, सच्चाई, अन्यों की परवाह करना आदि गुण देखादेखी स्वयमेव आ जाते है।
       जिस देश में राजा लूट-खसोट करता है और प्रजा के हक पर डाका डालता है वहाँ अराजकता फैल जाती है। प्रजाजन भी लूटमार करते हैं और दूसरों का हक छीनते हैं। वहाँ उस देश में भ्रष्टाचार, चोरबाजारी, कालाबाजारी, रिश्वतखोरी आदि बुराइयाँ मुँह बाये खड़ी रहती हैं। शासनतन्त्र अपना बीभत्स रूप उदाहरण के तौर पर सबके समक्ष रखता है तब उस देश का ईश्वर ही मालिक होता है।
       न्यायपालिका, पुलिस व प्रशासन से सभी लोगों का विश्वास तब उठने लगता है जब वे देखते हैं कि सत्ताधारी व्यक्तियों को आम आदमी जैसे समान अपराध के लिए या तो सजा मिलती ही नहीं या मिलती है तो जनसाधारण की आँखों में धूल झौंकने के लिए।
       जिस देश में इस प्रकार अफरा-तफरी का माहौल बन जाता है वह भितरघात का शिकार होता है। जब तक देश के शासक व प्रजा सच्चरित्र नहीं होंगें, अपने देश, वेष व संस्कृति के लिए उनमें मर-मिटने का जज्बा नहीं होगा तो वे चंद टुकड़ों के लालच में देश के रहस्य विदेशियों को बेचने में जरा भी नहीं हिचकिचाएँगे नहीं। इस प्रकार विदेशी उस देश की सभी अच्छाइयों, बुराइयों और सैन्य बल आदि सभी जानकारियाँ जुटा लेंगे।
        ऐसे अशान्त व अराजक देश को शीघ्र ही अपने अधिकार में कर लेना किसी भी अन्य देश के लिए कठिन नहीं होता। वह बिना अधिक कठिनाई के अपनी मनमानी करने में सफल हो जाता है।
      एक रामराज्य था जिसकी कल्पना हम आज भी करते हैं जहाँ आपसी सौहार्द था, एक-दूसरे की भावनाओं का सम्मान किया जाता था। राजा अपनी प्रजा पर पुत्रवत स्नेह रखता था। उसका सुख-दुख राजा का होता था और इसी प्रकार प्रजा भी अपने राजा पर न्योछावर हो जाती थी।
        दूसरी ओर महाभारत काल था जहाँ भाई ही भाई का शत्रु बन गया था सभी एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गए थे। उस समय सारी मान्यताओं को ताक पर रख दिया गया और चारों ओर स्वार्थ हावी हो गया था। इसके  परिणाम स्वरूप ही तब महाभारत का युद्ध हुआ जिसका फल हम आजतक भुगत रहे हैं। उसके बाद आने वाले शासक भी स्वार्थी, पदलोलुप व प्रजा के स्थान पर अपने हितों को सर्वोपरि रखने लगे। इसी कारण ही पहले मुगलों का शासन व अत्याचार देश पर हुआ और फिर अंग्रेजों का। इनसे मुक्ति के लिए न जाने कितने ही युवकों ने बलिदान दिए। तब जाकर कहीं देश स्वतन्त्र हो सका।
       राजा व प्रजा में आपसी सामंजस्य होना बहुत आवश्यक होता है। प्रजा के बिना राजा का कोई अस्तित्व नहीं होता यह बात राजसत्ता को आत्मसात कर लेनी चाहिए। यथासंभव प्रजा के हितों की रक्षा करनी चाहिए तभी देश उन्नति के सोपानों पर चढ़ सकता है व विश्व में अग्रणी बन सकता है।

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