शुक्रवार, 17 अप्रैल 2015

हमारे ग्रन्थ ज्ञान का आगार

हमारा भारत कुछ समय पूर्व तक विश्वगुरु कहलाता था। इसका संपूर्ण श्रेय निश्चित ही हम अपनी विशाल ग्रन्थ परंपरा को दे सकते हैं। हमारा सांस्कृतिक व वैचारिक दृष्टिकोण हमें अन्य संस्कृतियों से अलग करके विशेष बनाता है।
        हमारे प्राचीन ग्रंथ ज्ञान के अथाह सागर हैं। उनमें वर्णित जीवन मूल्यों की अनुपालना करने से हम इहलौकिक और पारलौकिक उन्नति कर सकते हैं। यह हम पर निर्भर करता है कि उस विशाल सागर से हम मोती चुनकर लाते हैं या किनारे पड़ी हुई सीपियों से संतुष्ट हो जाते हैं। अपने ग्रंथों का यदि हम निष्ठापूर्वक पारायण अर्थात श्रवण, मनन व निधिध्यासन नहीं करेंगे तो हमारा ग्रन्थ भण्डार हमारी किसी प्रकार की सहायता नहीं करेगा। कितना भी बड़ा पुस्तकालय हमारे पास एकत्रित किया गया हो वह व्यर्थ हो जाता है यदि हम अध्ययन नहीं करते। अतः हम अपना ज्ञान उसी को कह सकते हैं जिसको अध्ययन करके, साधना करके हम अपने अंतस् में समेटते हैं।
         हम अपने ऊपर कितना भी मान कर लें कि हमने अपने घर में पुस्तकों का संग्रह किया है पर यदि हम उन पुस्तकों को न पढ़ें तो वह सारा किताबी ज्ञान वहीं-का-वहीं धरा रह जाता है और हमारे काम कभी नहीं आता। विद्वानों के मध्य हमारी वही स्थिति होती है जैसे हंसो के बीच बगुले की होती है। किसी विद्वान ने सत्य कहा गया है-
न शोभते सभा मध्ये हंस मध्ये बको यथा।
       इसी तरह हमारे पास जो धन है वही हमारा है शेष नहीं। हमारे पास मान लीजिए बहुत धन है और हम लेन-देन का कारोबार करते हैं या व्यापार का बहुत-सा धन हमारे डीलर्स के पास पड़ा है। उस धन को हम अपना नहीं कह सकते जब तक वह हमारे हाथ में नहीं आता। जब हमें उस धन की सुख या दुख में आवश्यकता होगी तो वह हमें समय रहते मिल जाएगा ऐसा कुछ निश्चित नहीं।
       अतः किसी विद्वान ने हमें चेतावनी देते हुए समझाया है-
         पुस्तकस्था तु या विद्या परहस्तगतं धनम्।
         कार्यकाले समुत्पन्ने न सा विद्या न तद्धनम्।।
       इस श्लोक का अर्थ है कि पुस्तक में लिखा ज्ञान और दूसरे को दिया हुआ धन दोनों ही मुसीबत के समय काम नहीं आते। हमारे उपयोग में वही धन आता है जिसे हम अपने पास संभाल कर रखते हैं। इसी तरह वही ज्ञान हमारा मार्गदर्शक बनता है जिसे हमने अपने जीवन में साधना करके ढाला है।
           मैं अपने सभी साथियों से आग्रह करती हूँ कि अधिक-से-अधिक ज्ञानार्जन करें ताकि समय आने पर उपहास का पात्र न बनना पड़े। इसी तरह अपने खून-पसीने से कमाए हुए धन को भी यथासंभव हमेशा संग्रहित करके रखे ताकि समय आने पर किसी का मुँह न ताकना पड़े। दोनों ही धन (ज्ञान व धन)सदैव हमारे दो बाजू बनकर हमारी रक्षा करने के लिए तत्पर रहें और समाज में हमें यथोचित स्थान दिला सकने में सफल हों।
        अत: रास्ते में आने कठिनाइयों से अपने अर्जित ज्ञान(विवेक) के कारण ही हम जूझने में समर्थ हो सकते हैं। अपने सफल प्रयासों की बदौलत प्रसन्नतापूर्वक अपने जीवन की नौका संसार सागर से हम निस्संदेह पार तैरा सकते हैं।

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