गुरुवार, 9 अप्रैल 2015

धारा के विपरीत चलना

धारा के साथ तो सभी चलते हैं पर धारा के विपरीत चलने वाला महान होता है। धारा के विपरीत चलने वाले ही अपने लक्ष्य को प्राप्त करते हैं। जिनके लिए उनके सामने व पीछे हम आम भाषा में कुछ विशेषणों का प्रयोग करते हैं- सिरफिरा, पागल, जनूनी, खपती आदि।
       इन संबोधनों का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वे एक कान से सुनते हैं और दूसरे से निकाल देते हैं। अपनी ही धुन के पक्के वे दुनिया की फब्तियों को अपना अस्त्र बना लेते हैं। अपने निर्धारित किए गए मार्ग से वे नहीं भटकते। निष्ठापूर्वक आगे बढ़ते हुए अपने लक्ष्य को प्राप्त करके साँस लेते हैं।
       ऐसे लोग इस बात की जरा भी परवाह नहीं करते कि भीड़ उनके साथ अथवा पीछे चल रही है या नहीं। कोई उनका साथ देगा या नहीं? कहीं वे अकेले तो नहीं रह जाएँगे? अपनी धुन में अकेले ही वे मस्ती से चलते रहते हैं। वे उस शेर की तरह अकेले चलते हैं जो जंगल का राजा है और सभी पशु उसके पीछे रहते हैं। झुंड में तो भेड़ और बकरियाँ चलती हैं शेर नहीं।
        धारा के प्रवाह में वही बहते हैं जो लकीर के फकीर होते हैं। बिना अधिक श्रम किए सब कुछ पा लेना चाहते हैं। ऐसे लोगों की संख्या अधिक है। धारा के विपरीत जो चलने वाले मुट्ठी भर लोग होते हैं। इन्हीं लोगों के परिश्रम के परिणाम स्वरूप हम भौतिक सुख-सुविधाओं का भोग कर रहे हैं। यदि सभी लोगों की तरह ये भी अपनी जिन्दगी जीते तो कदाचित हम वैज्ञानिक चमत्कारों से आज वंचित होते। इतने ऐशो आराम से न जी रहे होते।
         ऐसी ही महाविभूतियों के बलिदान का परिणाम है हमारे देश भारत की स्वतन्त्रता। जिनकी बदौलत हम अपने देश में शान से सिर उठाकर चल रहे हैं। विदेशों में आज हम अपनी हस्ती रखते हैं। विश्व में हमारे भारत ने अपनी पहचान बनाई है।
      हमारे समाज सुधारक स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, राजाराम मोहन राय, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, ज्योति बा फुले,  बाबा आम्टे, विनोबा भावे, डॉ भीमराव अंबेडकर आदि महापुरुष इसी श्रेणी में आते हैं जो किसी की परवाह किए बिना ही समाज में फैले अंधविश्वासों एवं रूढ़ियों का विरोध करते रहे हैं। समाज को दिशा देने का कार्य करते हुए ये जहर तक हंसते हुए पी लेते हैं।
         ये सभी महापुरुष अपने-अपने घर में सुखपूर्वक अपनों की छत्रछाया में रह सकते थे परन्तु समाज के हित में कुछ कर गुजरने के जनून ने इनको धारा के विपरीत चलने के लिए विवश किया।
        ये सभी फूलों की सेज पर नहीं रहते थे बल्कि समाज के प्रहार एवं विरोध के बावजूद उसकी दशा व दिशा सुधारने के संकल्प को पूर्ण करने में ईमानदारी से जुटे रहे। कोई लालच, कोई आकर्षण, कोई धमकी अथवा कोई डर उन्हें अपने निर्धारित मार्ग से डिगा नहीं सका।
       यह नहीं सोचना चाहिए कि समाज विरोधी गतिविधियों में लिप्त होकर ही हम धारा के विपरीत हम चलेंगे। मेरे विचार में ऐसा करना सर्वथा अनुचित है। उन्हें हम पथप्रदर्शक नहीं कहते वे तो समाज के शत्रु कहलाते हैं।
        नदी में नाव को उसके बहाव के साथ नाविक आसानी से चला लेता है परन्तु उसके विपरीत चलाने में बहुत कठिनाई का सामना उसे करना पड़ता है उसी प्रकार धारा के विपरीत चलने वाले कृतसंकल्पी लोग ही देश, समाज व विश्व के सिर पर ताज के समान होते हैं। मानवजाति के कंठ के हार होते हैं।

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