गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

भूतयज्ञ

भूतयज्ञ अथवा अतिथियज्ञ हमारे पञ्च महायज्ञों में महत्त्वपूर्ण है। हमारी संस्कृति में 'अतिथिदेवो भव' की परिकल्पना है। इसका अर्थ है अतिथि यानि घर आए हुए मेहमान को भगवान के समान मानो। ऐसा समझाकर हमें अतिथि का सम्मान करना सीखाने वाली हमारी भारतीय सांकृतिक परंपरा ही हो सकती है अन्य कोई और नहीं।
          हमारे ग्रन्थों के अनुसार अतिथि साधु, संतों या विद्वानों को कहते थे। ये वे लोग होते थे जो दुनियादारी से दूर रहकार समाज का दिशा-निर्देश करते थे। ऐसे ज्ञानी जन कभी भी किसी भी गाँव या प्रदेश में चले जाते थे। जहाँ शाम या रात हो गयी वहीं डेरा डाल लेते थे। जन-साधारण को ज्ञानोपदेश देकर एक-दो दिन रुककर आगे पड़ाव के लिए निकल जाते थे।
        ये विद्वत जन मोह-माया से परे किसी स्थान पर अधिक समय नहीं ठहरते थे। इन लोगों के आने का कोई निश्चित समय नहीं होता था इसलिए अ + तिथि यानि बिना तिथि आने वाले कहलाते थे। बिना नखरा किए जो मिल जाता था खा लिया करते थे।
       वास्तव में ये अतिथि समाज की धरोहर होते थे जिनके भरण-पोषण करने का दायित्व समाज पर होता था। इन्हें बोझ नहीं माना जात था बल्कि समाज सिर आँखों पर बिठाते थे। समाज का मार्ग दर्शन करके उनकी आत्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करते थे।
        आजकल अन्यों की तरह अतिथि के मायने भी बदल गए हैं। अतिथि तो अब भी हमारे घरों में आते हैं पर बिना बताए नहीं आते। आज इस भौतिक युग में चारों ओर मारामारी हो रही है, आपाधापी मची हुई है। किसी को किसी से मिलने का समय ही नहीं है। सच्ची बात तो यह है कि कोई किसी से मिलना ही नहीं चाहता। सभी अपने को तीसमारखाँ समझते हैं। अगर मजबूरी में मिलना भी पड़े तो भारी लगता है। आज सभी समय न होने की मजबूरी का रोना रोते रहते हैं।
       वास्तव में ऐसा कुछ नहीं है केवल हममें इच्छा शक्ति की कमी है।अपनी मर्जी से हम घंटों बरबाद कर देते हैं।फिर भी मेहमानों का आना जाना तो लगा ही रहता है।
        मेहमान भी अब समझदार हो गए हैं तथा दूसरे की मजबूरी समझते हैं। अत: बिना पूर्व सूचना के नहीं आते। जो लोग हमें पसन्द होते हैं उनका स्वागत हम गर्मजोशी से करते हैं और जो नापसन्द होते हैं उनके आने पर हम अनमने हो जाते हैं। उनका सत्कार हम भार समझ कर करते हैं।
       आज के युग में किसी के घर में कुछ दिन रहने की बात बड़ी विचित्र-सी प्रतीत  होती है। परन्तु कुछेक स्थितियों में रहने के लिए भी आना होता है। जब किसी के घर पर रहने की आवश्यकता हो तो अतिथि धर्म का निर्वहण करना चाहिए। कहना यही है कि मेहमान को दूसरे के घर में मेहमान न बनकर घर के सदस्य की भाँति व्यवहार करना चाहिए। ऐसा करने पर वह बोझ नहीं बनता बल्कि सबका प्रिय बन जाता है। जब वह पुनः कभी वहाँ जाता है तो खुले दिल से उसका स्वागत किया जाता है।
         इसके विपरीत जो मनुष्य अपनी अकड़ में रहकर दूसरे के घर की व्यवस्था के अनुरूप ढलना नहीं चाहता वह अतिथि अपने मेजबान की आँखों में खटकता है। उससे कोई प्रसन्न नहीं होता और सभी यही मनाते हैं कि वह शीघ्र ही चलता बने।
        मित्रों अथवा संबधिंयों के घर जाते समय स्वयं को संतुलित रखना चाहिए। बच्चों को अनुशासन में रखना चाहिए तभी सम्मान मिलता है। बच्चों की उद्दंडता के कारण भी कई बार अतिथि व आतिथेय में मनमुटाव हो जाता है। इस अप्रिय स्थिति से यथासंभव बचना चाहिए।
समय व परिस्थितियों के चलते अतिथि को भगवान की तरह मानने की परंपरा वाले हमारे देश में यद्यपि स्वाभाविक बदलाव आए हैं पर आज भी अतिथि का स्वागत-सत्कार अपनी सामर्थ्य से बढ़कर किया जाता है।

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