गुरुवार, 23 अप्रैल 2015

संबंधों में शर्त

रिश्तों में कभी शर्त नहीं रखनी चाहिए। यदि आपसी संबंधों में शर्ते रखी जाएँ तो वे लम्बे समय तक साथ नहीं निभाते। सारे भौतिक रिश्ते-नाते घर-परिवार, भाई-बन्धु, मित्रादि भावनाओं से जुड़े होते हैं। जहाँ शर्तें रखी जाती हैं वहाँ मनों में दूरियाँ होने लगती हैं।
         पति-पत्नी का संबंध बहुत ही नाजुक होता है। इसमें जरा-सा भी मनोमालिन्य होने पर रिश्ता दरकने लगता है। तब इस संबंध में अलगाव की स्थिति बन जाती है। सबसे भयावह स्थिति तब होती है जब पति-पत्नी का तालाक हो जाता है और वे दोनों पुनः विवाह करके अपने-अपने जीवन में सेटल हो जाते हैं। तब माता-पिता के होते हुए भी वे मासूम बच्चे अनाथों की तरह जिन्दगी जीते हैं जिन बेचारों का कोई दोष नहीं होता। यहाँ वही बात हुई कि करे कोई और भरे कोई।
         माता-पिता या बच्चे यदि एकसाथ रहने के लिए शर्ते रखने लगें तो घर में मिल-जुलकर नहीं रहा जा सकता। जिन माता-पिता का ऋण आयुपर्यन्त सेवा करके भी नहीं चुकाया जा सकता उन्हीं से मुख मोड़ लेना कदापि मान्य नहीं हो सकता। सभी को मिलकर हल सोचना चाहिए कि ऐसी विषम स्थिति घर में न बनने पाए तभी घर में सुख, शांति व समृद्धि का स्थायी रूप से वास हो सकता है।
        भाई-बहन के रिश्ते को यदि शर्तो में बाँधने का प्रयास किया जाए तो वहाँ पर संबंधों की गरमाहट समाप्त हो जाती है। आज भौतिक युग में कई भाई-बहनों में धन-सम्पत्ति को लेकर शर्तें रखी जाती हैं। तब कोर्ट-कचहरी तक में जाने की नौबत आ जाती है। ऐसे परिवारों में निश्चित ही मनमुटाव हो जाता है और रिश्ते समाप्त हो जाते हैं। कोई भी किसी की शक्ल तक नहीं देखना चाहता। वहाँ भाई-बहनों के संबंध शत्रुता में बदल जाते हैं। ऐसे में ली गई धन-सम्पत्ति रिश्तों पर भारी पड़ जाती है।
       दूर की रिश्तेदारों के साथ संबंधों में तो खैर शर्तों की आवश्यकता ही नहीं होती। वे तो अपनी सुविधा के अनुसार निभाए जाते हैं। यदि उन्हें नजदीकी बनाना चाहो तो ठीक नहीं तो भली करेंगें राम। वहाँ सुख-दुख में ही रिश्ता निभा लिया जाए तो मान लिया जाता है बहुत हो गया।
       यदि मित्रता अपनी शर्त पर करना चाहेंगे तो कोई मित्र बनेगा ही नहीं। और यदि तथाकथित मित्रता हो भी जाएगी तो मात्र स्वार्थ के वशीभूत होगी। वह लम्बे समय तक नहीं चलती। जहाँ स्वार्थ पूर्ण हो गए वहाँ 'जय राम जी' की करके सब चलते बनते हैं। फिर 'तू कौन और मैं कौन' वाली बात हो जाती है। तब वे स्वार्थी मित्र एक-दूसरे तक को पहचानते ही नहीं हैं।
        संबंधों को शर्तों के तराजू में तौलने वाला व्यक्ति बहुत जल्दी अकेलेपन का शिकार हो जाता है। सभी उससे किनारा कर लेते हैं। उसे स्वार्थी कहकर उसका उपहास उड़ाते हैं। जब उसे इस बात की समझ आती है तब सब हाथ से निकल जाता है और पश्चाताप करने के अलावा कुछ नहीं बचता।  
      जब-जब रिश्तों में दरार आती है तो वे टूटने की कगार पर पहुँच जाते हैं। अगर उन्हें पुनः जोड़ने का यत्न किया जाए तो उनमें गाँठ पड़ जाती है। रहीम जी व्यथित होकर समझाते हुए कहते हैं-
      रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाय।
       टूटे से फिर न जुड़े जुड़े गाँठ  पड़ी जाए॥
और भी कहा है-
       रूठे सुजन  मनाइए  जो रूठें सौ बार।
       रहिमन फिर फिर पोहिए टूटे मुक्ताहार॥
सबसे प्रेमपूर्वक मिल-जुलकर रहना ही हितकर है। इसलिए अपने रिश्तों को अपने झूठे अहम के कारण शर्तों में बाँधने से यथासंभव बचना चाहिए।

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