सोमवार, 13 अप्रैल 2015

बदला लेने की प्रवृत्ति

बदला अथवा प्रतिशोध लेने से कभी किसी का भला नहीं होता। यह एक ऐसा भाव है जो हमारे संताप का कारण बनता है। दूसरे को तो हानि पहुँचते-पहुँचते पहुँचेगी परन्तु अपना नुकसान हम पहले कर लेंगे।
        आप कहेंगे कि क्या हम बेवकूफ हैं जो अपना नुकसान करेंगे? यद्यपि यह विश्वास करने वाली बात नहीं है पर सत्य है। मान लीजिए हमें पता चला कि किसी ने हमें भला-बुरा कहा या हमारा नुकसान कर दिया। अब हम उसे छोड़ने वाले नहीं हैं। हम अपने मन में अनेक बार उसे कोसने या गाली देने का अभ्यास करते हैं। उस व्यक्ति को तो एक बार भला-बुरा कहा पर अपने मन में अनेक बार। अब कहिए स्वयं को कितनी बार उत्तेजित किया, कितनी बार दूसरे के असभ्य व्यवहार पर अपनेआप को पीड़ित किया। हम यह क्रियाएँ दोहरा रहे हैं और जिसके लिए सब कर रहे हैं उसको तो कुछ भी पता ही नहीं। वह तो इस सबसे अंजान है। इस प्रकार हम अपने साथ अंजाने में न चाहते हुए अन्याय कर बैठते हैं। यह सतत प्रक्रिया हमारे जीवन में चलती रहती है।
        इसलिए हमें दूसरे को क्षमा कर देने का यत्न करना चाहिए। छोटी छोटी बातों का पिष्टपेषण करते रहने या बाल की खाल निकालने से अपनी ही हानि होती है। और न सही पर अपने लाभ के लिए ही दूसरों को माफ कर दें। जो दूसरों को क्षमा नहीं कर सकता वह  व्यक्ति अहंकारी कहलाता है। उससे सभी किनारा कर लेते हैं। न तो कोई उसकी प्रशंसा नहीं करता है और न कोई उससे मित्रता करना चाहता है। ऐसा व्यक्ति किसी के मन में अपना स्थान नहीं बना सकता। इसके विपरीत क्षमाशील मनुष्य सबका प्रिय बन जाता है। सबके हृदय का सम्राट बनकर उनका अपना बन जाता है। 
        ईश्वर ने मनुष्य को विवेक शक्ति दी है। यदि हम अपने विवेक के परामर्श पर चलेंगे तो हमेशा सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ेंगे। अन्यथा जीवन की दौड़ में पिछड़ जाते हैं।
       बदला लेना पशु प्रवृत्ति हैं। साँप-बिच्छु जैसा व्यवहार नहीं करना है। इससे बचने का प्रयास करना चाहिए। यह वृत्ति मनुष्य को स्वार्थी व अहंकारी बना देती है। मनुष्य अपने धन-वैभव, विद्या, सौंदर्य, पद आदि किसी के भी घमंड में हर किसी को देख लेने की धमकी देता रहता है। यह भी तो बदला लेने का ही रूप है। वह भूल जाता है सृष्टि का नियम है कि कभी-न-कभी सेर को सवा सेर मिल ही जाता है। तब स्थिति की कल्पना कीजिए।
      अपनी सोच का दायरा संकुचित कर लेने से हृदय में संकीर्णता बढ़ती है। हम छोटे मन वाले होते जाते हैं। यह तो हमारे व्यक्तित्व के साथ मेल नहीं खाता।
         अपने हृदय को थोड़ा विशाल कर लेने से बदला लेने जैसा विचार खुद-ब-खुद निकल जाता है। ऐसा नहीं है कि लोग हमें मूर्ख समझेंगे और कहेंगे कि यह तो किसी को कुछ कहता ही नहीं। ऐसे व्यक्ति समाज में निस्संदेह पूजनीय होते हैं। पीठ पीछे उनके व्यवहार की प्रशंसा ही होती है।
        शत्रु तो हमारे होते ही हैं परन्तु बदला लेने की आदत बना लेने से मित्र भी हमारे शत्रु बन जाते हैं। इस प्रकार बदला लेने की तुच्छ सोच हमें अपने भाई-बन्धुओं, परिवारी जनों व मित्रों से दूर कर देती है। हम अलग-थलग होने लगते हैं। मेरा मानना है कि अपने सच्चे मित्रों व बन्धुओं को कभी खोना हम नहीं चाहेंगे। हमें यथासंभव इन स्थितियों से बचना चाहिए। दंड देने का कार्य उस प्रभु का है हमारा नहीं यह सोच मन में विकसित करनी चाहिए। तब हमारा मन अशांत नहीं होगा और बदला लेने की प्रवृत्ति मन में घर नहीं करेगी।

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