रविवार, 11 अक्तूबर 2015

आत्मरमण

भौतिक संसार के क्रियाकलापों को करने में हम इतना अधिक व्यस्त रहते हैं कि अपने विषय में सोचने का समय निकाल ही नहीं पाते। इसलिए हम स्वयं से नित्य प्रति दूर और दूर होते जाते हैं।
         इसके विपरीत जो अपने अंतस में विराजमान ईश्वर को पाने के लिए आत्म साधना में लीन हो जाते हैं वे भौतिक संसार के सभी कार्य व्यवहार करते हुए भी वे विदेहराज जनक की तरह ऊपर उठ जाते हैं। उनके सभी भौतिक कार्य केवल मात्र आवश्यकता पूर्ति के लिए ही रह जाते हैं। उनमें उनका मन नहीं रमता। वे बारंबार नाम जाप की ओर प्रवृत्त होते रहते हैं। उस दिव्य आनन्द का रसास्वादन करते रहना चाहते हैं।
         आत्मरमण करने वाले लोग व्यवहार में कैसे होते हैं? इस विषय में इष्टोपदेश का कथन है कि-
ब्रुवन्नपि न  हि ब्रूते गच्छन्नपि न गच्छति।
स्थिरीकृतात्मवस्तु पश्यन्नपि न पश्यति॥
अर्थात अपनी आत्मा में स्थिर रहने वाले व्यक्ति बोलते हुए भी नहीं बोलते, जाते हुए नहीं जाते और देखते हुए नहीं देखते।
           इस विषय में यह सब पढ़कर और  सुनकर बड़ा विचित्र लगता है पर सच्चाई यही है। वे सबके साथ बैठे हुए भी अकेले होते हैं क्योंकि उन्हें बतरस में आनन्द का अनुभव नहीं होता। यदि किसी प्रश्न का उत्तर उन्हें देना पड़े तो हाँ या हूँ करके टाल देते हैं। कहीं भी जाते समय अपने ध्यान में मग्न रहते हैं। यदि वे अपनी भौतिक नजरों से कहीं देखते हुए लगते हैं तो भी वास्तव में दूसरो को न देखकर अपने अतस में झाँक रहे होते हैं।
        आत्मरमण करने वाले स्वयं में इतने खोए रहते हैं अथवा आत्म अभ्यास में इतना अधिक जुटे रहते हैं कि किसी के पास बैठे रहते हुए भी अपनी साधना में रत रहते  हैं। किसी को उनके साधना में लीन होने का पता ही नहीं चल पाता। इसीलिए बैठते-उठते, सोते-जागते, चलते-फिरते प्रभु के नाम का भजन करते रहते हैं या साधना करते रहते हैं।
           भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में इन लोगों के विषय में हमें बताया है कि जो सदा ही आत्मरमण करने वाले होते हैं वे कैसे होते हैं-
यस्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानव:।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्य न विद्यते॥
अर्थात जिसकी अपनी आत्मा में प्रीति होती है, जो आत्मा में ही तृप्त रहता है और अपनी आत्मा में ही सन्तुष्ट रहता है, उसके लिए कुछ भी कर्त्तव्य नहीं होता।
        जो व्यक्ति आत्म साधना में लगा रहता है उसे पुन: पुन: आत्मानन्द को उसी प्रकार अनुभव करने की इच्छा होती है जैसे हम अपनी प्रिय भौतिक वस्तुओं का बार-बार आनन्द लेना चाहते हैं। अपने अंतस को खोजने में लगा हुआ व्यक्ति आत्मानन्द का इतना अभ्यासी हो जाता है कि उसे सारे भौतिक सुख-साधन बेमायने लगने लगते हैं। वह सांसारिक कार्यों का सम्पादन करते हुए भी उनमें लिप्त नहीं होता अर्थात निर्लिप्त रहता है।
         हमारे ऋषि-मुनि और भगवान कृष्ण बारबार यही उपदेश देते हैं कि ससार में जल में कमल की निर्लिप्त होकर मनुष्य को रहना चाहिए। इससे मनुष्य में कर्त्तापन का अभिमान नहीं आता। वह अपने सभी कृत कार्यों का श्रेय उस परमपिता परमात्मा को देता हुआ आत्मोन्नति के मार्ग पर प्रशस्त होता है।
           आत्मरमण करने वाले लोगों को इस भौतिक संसार के लोग आम भाषा में पागल कह सकते हैं परन्तु वे इस बात से अनजान रहते हैं वे क्या खो रहे हैं और ये पागल साधक क्या पा रहे हैं? आत्माभ्यासी लोग ही जीवन का वास्तविक आनन्द लेते हुए अपने सुखद पारलौकिक भविष्य को सुरक्षित करने में सफल हो जाते हैं दुनिया के जंजालो में फंसे हुए अन्य लोग नहीं।
चन्द्र प्रभा सूद
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