शनिवार, 31 अक्तूबर 2015

किशोर वय की समस्याएँ

किशोर वय की भी बड़ों की तरह अपनी ही बहुत सारी समस्याएँ होती हैं। इस आयु में बच्चे जीवन के ऐसे मोड़ पर होते हैं कि न तो वे बड़े कहलाते हैं और न ही बच्चे। इन बच्चों की सही कही बातों पर बड़े लोग ध्यान नहीं देते। यह बात इनके कोमल मन को बहुत पीड़ा देती है।
         इन किशोरों की सबसे बड़ी समस्या है कि ये सोचते हैं हम बड़े हो गए हैं और बड़ों की तरह ही उन्हें अपने फैसले लेने की स्वतन्त्रता होनी चाहिए। वे अपनी मनमर्जी से सारे कार्य करना चाहते हैं। वे चाहते है कोई भी उन्हें रोकटोक न करे। किसी की भी दखलअंदाजी से वे चिढ़ जाते हैं।
          इस किशोरावस्था में वे छोटों के साथ खेलना या मौज-मस्ती नहीं करना चाहते। उन्हे लगता है कि वे छोटे हैं उनके बराबर के नहीं हैं। इसलिए वे उनसे दूरी बनाकर रहते हैं। बड़े लोग जो है वे उन्हें बच्चा मानते हुए अनदेखा करते हैं। इस कारण वे बिल्कुल अकेले हो जाते हैं।
          अपने इस अकेलेपन को दूर करने के लिए वे हमउम्र साथियों की तलाश करते हैं। उनके साथ वे अपना समय व्यतीत करते हैं, मौज-मस्ती करते हैं, हंसी-मजाक करते हैं और घूमते-फिरते हैं। उन्हें लगता है कि ऐसे दोस्तों को खोजकर उन्होंने कोई खजाना पा लिया है।
         घर में रहते हुए वे स्वय को अकेला महसूस करते हैं। इसलिए अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए उनको टीवी देखकर, गेम्स खेलकर, मोबाइल में वाटस अप पर दोस्तों से गप्पे लगाकर अथवा फेसबुक पर मनपसंद पोस्ट या वीडियो देखकर अपना समय बिताना अच्छा लगता है। अपनी पसंद के गाने सुनकर भी वे मन बहलाने का यत्न करते हैं।
         ये बच्चे चाहते हैं कि उनके माता-पिता उनके लिए समय निकालें, उनके पास बैठें, उनसे सलाह-मशविरा करें,  जरूरत पड़ने पर उनको डाँट-डपट करें। वे अपनी स्कूल की और अपने दोस्तों की समस्याओं को उनके साथ शेयर करना चाहते हैं।
         उनके माता-पिता दोनों ही दिन-रात अपने-अपने कार्यालय अथवा व्यवसाय में व्यस्त रहते हैं। सवेरे से शाम तक जुटे हुए उन्हें आराम के पल भी नहीं मिलते। जिन किशोरों की सुविधा सम्पन्न माताएँ घर पर रहती हैं वे भी अपने मित्रों के साथ क्लबों, किटी पार्टियों या शापिंग आदि में व्यस्त रहती हैं। उनके पास अपने बच्चों के लिए समय का अभाव रहता है।
        अपने समयाभाव के मुआवजे के रूप में वे बच्चों को उनकी पसंदीदा मंहगी वस्तुएँ खरीदकर ला देते हैं। यदि वे सौ रूपए माँगते हैं तो उन्हें पाँच सौ या हजार के नोट थमा देते हैं। विद्यालय से कहीं बाहर घूमने जाना हो या दोस्तों के ही साथ मटरगश्ती करनी हो तो उन्हें आवश्यकता से अधिक धन थमाकर उनका दिल जीतने की नाकाम कोशिश करते हैं।
         किशोरों को इन सब भौतिक वस्तुओं की उतनी अधिक आवश्यकता नहीं होती जितनी माता-पिता के समय की होती है। वे भी दूसरे बच्चों की तरह उनसे लाड-प्यार करना चाहते हैं। उनसे रूठने का ढोंग कर मनुहार करने पर मानना चाहते हैं। पर वे माता-पिता हैं जिन्हें ये सब बचकानी हरकतें लगती हैं।
         ऐसे में ये किशोर बागी होने लगते हैं। अपने माता-पिता का ध्यान आकर्षित करने के लिए उल्टे-सीधे काम करने शुरू देते हैं। कुछ गलत संगति में पड़कर अपना जीवन बर्बाद कर लेते हैं।
         किशोरावस्था में बच्चे इतने बड़े या इतने जिम्मेदार नहीं होते कि उनकी ओर से निश्चिन्त हुआ जा सके। उन्हें इस अवस्था में भी मात-पिता के प्यार-दुलार की उतनी ही आवश्यकता होती है जितनी बचपन में होती थी। इसलिए उनकी ओर ध्यान देना बहुत आवश्यक है। यही वह समय है जब उन्हें संस्कारित करके सुयोग्य बनाया जा सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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