गुरुवार, 22 अक्तूबर 2015

एक पत्नी की कामना

दशहरे पर विशेष
पुरुष चाहता है उसकी पत्नी सीता हो पर स्वयं वह राम नहीं बनना चाहता। नारी पुरुष के झूठे अहम और असके अंतस की बुराइयों को दशहरे की अग्नि में भस्म करके उसे अपने राम के रूप में पाना चाहती है। नारी मन के उद्वेग को दर्शाती यह कविता-
तुमने चाहा मैं तो सीता बन गई
पर क्या तुम मेरे राम बन सके?

पग-पग पर तुमने मेरे लिए बस
मर्यादाओं की रेखाएँ ही खींची
मैं उन पर अब तक खरी उतरी
नहीं  सुना है तुम्हारा  उलाहना
तुमने चाहा मैं तो सीता बन गई
पर क्या तुम मेरे राम बन सके?

जब-जब, जैसे-जैसे, कैसे-कैसे
जीवन में सब कुछ तुम मुझको
बतलाते  गए समय-समय  पर
तुम्हारा मनचाहा मैं करती रही
तुमने चाहा मैं तो सीता बन गई
पर क्या तुम मेरे राम बन सके?

तन, मन औ धन जो भी था मेरा
सब हँसते-हँसते सौप दिया था
बिना शिकन आए इस माथे पर
अपने पास है कुछ नहीं बचाया
तुमने चाहा मैं तो सीता बन गई
पर क्या तुम मेरे राम बन सके?

सब कुछ सहते सब कुछ करते
तुम्हारी उन इच्छाओं  पर मरते
तुम्हारे  पीछे-पीछे  चलते-चलते
मैं तो इस जीवन में पार आ गई
तुमने चाहा मैं तो सीता बन गई
पर क्या तुम मेरे राम बन सके?

तुम्हारे तन व धन से क्या होगा
गर तुम मन से मेरे नहीं हो सके
तेरा मन शायद हो जाएगा मेरा
चाह  निगोड़ी रही राह  ताकती
तुमने चाहा मैं तो सीता बन गई
पर क्या तुम मेरे राम बन सके?

तन से इस  तन का मिल जाना
सच  में पशु भी कर लेते जग में
मन का मिलना ही कठिन होता
जो बाँट दिया है तुमने किसको
तुमने चाहा मैं तो सीता बन गई
पर क्या तुम मेरे राम बन सके?

नहीं चाहिए था राज्य सिंहासन
जंगल-जंगल भटक-भटक करके
ठोकरें खाने को छोड़ ही देना था
तुम्हारी बाट जोहती आस है मेरी
तुमने  चाहा मैं तो सीता बन गई
पर क्या तुम मेरे राम बन सके?

तुम्हारी दीं सब अग्नि परीक्षाएँ
जो मेरी झोली में डाल थी तुमने
सबको हँसकर  पास कर लिया
जीत न पाई मैं अहसास तुम्हारा
तुमने चाहा मैं तो सीता बन गई
पर क्या तुम मेरे राम बन सके?

इस मोड़ पर  खड़ी  हुई अब भी
तुम्हारी राह निहार रही हूँ मैं तो
शायद आ जाओ मेरे पास कभी
तुम मेरे ही राम बन मुस्काते हुए
तुमने चाहा मैं तो सीता बन गई
पर क्या तुम मेरे राम बन सके?
चन्द्र प्रभा सूद
Twitter- http://t.co/86wT8BHeJP

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