शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2015

ईश्वर स्मरण की कोई आयु नहीं

एक गीत की पंक्तियाँ याद आ रही हैं-
आया था किस काम रे
क्यों सोया चादर तान के
सुरत सम्हाल अब गाफला
अपना आप पहचान रे।
इन पंक्तियों का अर्थ है कि इस संसार में जिस उद्देश्य से आया है, उसे मनुष्य भूल गया है। आगे कहा है कि अब तो होश में आ जाओ और अपने आप को पहचानो।
         विचार इस विषय पर करना है कि मनुष्य इस दुनिया में किस काम को करने के लिए आया था? ऐसा क्या हुआ कि वह यहाँ आने के अपने उद्देश्य को भूल गया है? उसे ऐसा क्या करना चाहिए कि जिससे वह जागकर स्वयं को पहचान सके?
         चौरासी लाख योनियों में अपने पूर्व कृत कर्मों को भोगकर जीव मनुष्य का चोला धारण करता है। वह ईश्वर को प्राप्त करने के लिए तब तक बारबार जन्म लेता रहता है जब वह अपने परम लक्ष्य मोक्ष को नहीं पा लेता।
          विद्वानों का कथन है कि जीव जब माता के गर्भ में होता है तब ईश्वर से नित्य प्रार्थना करता है कि मुझे इस अंधेरे से बाहर निकालो और इस कष्ट से मुक्त करो। मैं सदा तुम्हें स्मरण करूँगा। परन्तु ज्योंहि जीव इस धरा पर अवतरित होता है त्योंहि उसे दुनिया की हवा लगने लगती है। ईश्वर से किए अपने सारे वादे भूल जाता है। फिर संसार के कारोबार में लगा वह इस संसार में आने के अपने उद्देश्य को भी किनारे कर देता है।
           इस प्रकार जीव इस संसार के मकड़जाल में फंसकर ही रह जाता है और गफलत में जीवन जीने लगता है। दुनिया की रेस में भागते-भागते निढाल होता रहता है। उसे दीन-दुनिया किसी की कोई खबर नहीं रहती। बस अपने और अपनों के इर्द-गिर्द घूमते रहना उसकी प्रकृति बन जाती है। ऐसे में उसे अपने किए गए वादों की याद नहीं आती।
          मनुष्य दुनिया में आकर बहुत स्वार्थी  बन जाता है। मृत्युपर्यन्त स्वार्थों को पूरा करने के अनेक यत्न मनुष्य करता है। पर वे हैं कि सुरसा के मुँह की तरह बढ़ते जाते हैं। उसके लिए अपने दायित्वों को निभाना प्राथमिकता होती है। ईश्वर का नाम जपना आगे सरकता रहता रहता।
         बचपन में सोचता है कि अभी खेलने और पढ़ने की उम्र है, पहले बड़ा हो जाऊँ, अपने जीवन में सेटल हो जाऊँ फिर जवानी में ईश्वर को याद कर लूँगा। जब जवानी आती है तब घर-परिवार के दायित्वों का निर्वहण करने में वह इतना अधिक व्यस्त हो जाता है और सोचता है कि बच्चे सेटल हो जाएँ, उनके शादी-ब्याह हो जाएँ तब फिर निश्चिन्त होकर मैं भगवान को याद करूँगा। वह अवस्था पार होने के बाद मनुष्य रिटायरमेंट की आयु में पहुँच जाता है और धीरे-धीरे अशक्त होने लगता है। तब शरीर उसका साथ नहीं देता और बीमारियाँ घेरने लगती हैं।
          उस समय वह खीज उठता है जब कोई उसे ईश्वर का स्मरण करने के लिए कहता है। वह उत्तर देता है कि मैं बीमारी से पहले लडूँ या भगवान को याद करने बैठ जाऊँ। यदि उसने स्वयं को याद कराना है तो पहले मुझे ठीक तो करे। यही सब करते हुए उसका अन्तकाल भी आ जाता है। उस समय वह पश्चाताप करता है, प्रभु से क्षमा याचना करता और जीवन का समय बढ़ाने के लिए मिन्नतें करता है। बचपन से ही यदि ईश्वर का स्मरण किया होता तो अन्तकाल में पछताना नहीं पड़ता।
         अब कुछ नहीं हो सकता। अब तो वही बात हो जाती है-  'अब पछताए होत क्या जब चिड़ियाँ चुग गईं खेत।' सारा जीवन मनुष्य तथाकथित रूप से ईश्वर से नजरें चुराता है। उसकी बताई हुई सारी शिक्षाओं को भूलकर दुनिया की चकाचौंध में खो जाता है।
           यदि अन्तकाल में प्रसन्नता से उस मालिक के पास जाना चाहते हैं, उससे नजरें मिलाना चाहते हैं तो अभी कुछ भी नहीं बिगड़ा। समय व्यर्थ गंवाए बिना उस प्रभु की अराधना में जुट जाओ। दुनिया के सारे कार्य स्वतः ही पूर्ण होते जाएँगे।
चन्द्र प्रभा सूद
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