मंगलवार, 20 अक्तूबर 2015

मृत्यु अवश्यंभावी

मृत्यु अवश्यंभावी है इससे आज तक कोई नहीं बच सका। जिन्हें हम भगवान मानते हैं वे भी इस संसार हमेशा के लिए नहीं रहे अपितु निश्चित अवधि के पश्चात यहाँ से विदा हो गए।
           प्रत्येक जीवधारी को इस धरा पर अपने कर्मानुसार निश्चित समय के लिए ही जीवन मिलता है। किसी को कुछ पल के लिए जीवन मिलता है तो किसी को सैंकड़ों बरस के लिए। चौरासी लाख योनियों में किस जीव को कौन-सा जन्म मिलता है यह उसके पूर्वकृत कर्मों के अनुसार निर्धारित होता है। केवल मनुष्य योनि को ही कर्मयोनि कहा जाता है शेष सभी भोगयोनि कहलाती हैं। इन सभी योनियों में अपने कुकृत्यों या दुष्कर्कामों का फल भोगने के बाद ही मानव के रूप में उसका जन्म होता है।
         मानव योनि उसकी बपौती नहीं है कि वह सदा ही मनुष्य रहेगा। यदि मानव तन पाकर वह सत्कर्म नहीं करेगा तो फिर उसे मानवेतर योनियों में जन्म मिलेगा। एक जन्म के बाद मृत्यु और फिर मृत्यु के बाद पुन: जन्म- यही क्रम निरन्तर चलता रहता है जब तक जीव मोक्ष के अपने लक्ष्य को पा नहीं लेता।
         कोई भी इस असार कहे जाने वाले ससार को छोड़कर नहीं जाना चाहता चाहे वह कितने ही कष्ट में क्यों न हो।
         बहुत बचपन में एक कहानी पढ़ी थी कि एक महान मूर्तिकार ने मृत्यु को चकमा देने के लिए बड़ा अच्छा उपाय सोचा। मृत्यु का समय निकट जानकर उसने अपने जैसी कई मूर्तियाँ बनाकर हाल कमरे में सजाकर रख दीं और स्वयं भी उनके बीच में जाकर खड़ा हो गया।
        कहते हैं जब यमराज उसे लेने के लिए आए तो इतनी सारी जीवन्त मूर्तियों के बीच छिपे मूर्तिकार को खोज नहीं पाए। तब उन्होंने उसे ढूँढने के लिए जुगत भिड़ाई और कहा- जिसने भी ये मूर्तियाँ बनाई हैं उसने वाकई चमत्कार किया है। ये मूर्तियाँ सचमुच ही बहुत खूबसूरत  हैं पर इनमें एक कमी रह गई है। यह सुनकर उस मूर्तिकार को धक्का लगा। फौरन बाहर आकर उसने पूछा- 'क्या कमी रह गई है इन मूर्तियों में?' तब हंसते हुए यमराज ने कहा- 'इनमें कोई कमी नहीं है पर तुम में कमी रह गई जो तुम इनसे बाहर निकलकर बोल पड़े।'
         कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य कितने ही मजबूत किले बनाकर स्वयं को सुरक्षित कर लेने का दम्भ भरे अथवा मूर्तिकार की तरह मौत को चकमा देने की कोशिश करे उसे सफलता नहीं मिल सकती। मृत्यु के पंजे में फंसा वह उससे किसी भी तरह छूट नहीं सकता।
         सार रूप में हम यही समझ सकते हैं कि जन्म से लेकर अन्तिम दिन तक मौत की तलवार हमारे सिर पर लटकती रहती है। जैसे कबूतर आँख बन्द कर ले और सोचे कि बिल्ली चली गई है और अब तो मैं सुरक्षित हो गया हूँ। ऐसा सोचना उसकी भूल होती है। वह बिल्ली तो अपना शिकार पकड़ ही लेगी।
         इसी प्रकार यदि हम अपने सिर पर लटकती तलवार को देखकर भी अनजान बने रहना चाहते हैं तो मृत्यु को कोई अन्तर नहीं पड़ने वाला। जब हमारा समय पूरा हो जाएगा तब वह हमारे शरीर में विद्यमान इस जीव को बिना आगे-पीछे देखे लेकर चल पड़ेगी।
         मृत्यु तो एक-न-एक दिन आनी ही है इसलिए उससे क्या डरना? भर्तृहरि जी का कहना है-
अद्यैव मरणं युगान्तरे वा धीरा: न्यायात्पथ: पदं न प्रविचलन्ति।
अर्थात धीर लोग अपने न्याय के मार्ग से एक कदम भी विचलित होते क्योंकि उन्हें मृत्यु का भय नहीं होता।
         दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि मृत्यु अटल सत्य है। इसका डर उन लोगों को होता है जो अपने सच्चाई व ईमानदारी के ठीक रास्ते को छोड़कर गलत रास्ते पर चलकर अपना जीवन बरबाद कर लेते हैं। जो सत्य के मार्ग पर चलते हैं वे हंसते हुए उसे गले लगाने के लिए उसकी प्रतीक्षा में तैयार बैठे रहते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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