जीवन भर
साथ चलते हुए
क्या जान सके हैं?
एक-दूजे के भावों की गहराई को
बड़ा मान था
जिन पर हमको
खरे उतर पाए क्या?
हमारी उम्मीदों की कसौटी पर वो
सोचा था कि
मेरा है जो वह तो
मेरा ही रहेगा सदा
समय की आँधी ने उड़ाया उसको
मेरा ही मजाक
बनाकर लगाया
एक तमाचा करारा
सम्हाल न सकी थी मैं अपने को
एक के बाद
दूसरे जख्म तो
मुझे मिलते ही रहे
पर मैं नादान न समझ पाई उनको
झुठलाती रही
बारबार अपने को
पर कब तक हो पाएगा
मेरे सब्र की इन्तहा हो गई अब तो
काश ऐसा होता
मैं सबसे अनजान
बन जी लेती जग में
मेरा यूँ अपमान न हो पाता तब तो
आज तक नहीं
समझ सकी हूँ मैं
मेरे किस अपराध का
विधना ने दे दिया कठोर दण्ड वो।
चन्द्र प्रभा सूद
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