गुरुवार, 8 अक्तूबर 2015

आत्मरक्षा

आत्मरक्षा के लिए हर किसी को निरन्तर प्रयत्नशील रहना चाहिए। जो व्यक्ति अपनी स्वयं की रक्षा नहीं कर सकता उसकी रक्षा कोई दूसरा नहीं कर सकता। इसलिए शास्त्र कहते हैं- 'आत्मानं सततं रक्षेत्।'
अर्थात मनुष्य को अपनी रक्षा के लिए निरन्तर यत्न करना चाहिए।
          यदि किसी मनुष्य में शारीरिक बल की कमी भी हो तो उसे अपना आत्मिक बल यानि अपना आत्मविश्वास बढ़ाना चाहिए। जिस मनुष्य के पास आत्मिक बल होता है वह कभी किसी परिस्थिति में भी घबराता
नहीं है और किसी भी व्यक्ति का सामना कर सकता है।
          एक चींटी जो बहुत ही छोटा जीव है और किसी का कुछ बिगाड़ नहीं सकती। यदि उसे छेड़ा जाए तो वह भी कुलबुलाते हुए अपना विरोध प्रकट कर देती है। इसी प्रकार मनुष्य को भी आवश्यकता पड़ने पर अपने शक्तिशाली शत्रु का प्रतिरोध अवश्य करना चाहिए।
          एक दृष्टान्त कभी पढ़ा था कि एक साँप को किसी मुनि ने कहा कि तुम व्यर्थ ही  निरपराध लोगों को डसकर उन्हें मार देते हो। यह अच्छी बात नहीं है। तुम्हें भी अहिंसा का मार्ग अपना लेना चाहिए और अपना परलोक सुधारना चाहिए। उसे महात्मा जी की बात पसद आ गई और उसने सोचा क्यों न मैं लोगों को क्षमादान देकर परलोक सुधार लूँ।
           कुछ दिन बीतने पर वह उन महात्मा जी के पास आया और अपनी व्यथा सुनाने लगा। उसने कहा कि जब से उसने लोगों को काटना छोड़ दिया है तब से कोई भी उससे नहीं डरता। लोग मुझे परेशान करते हैं और मुझ पर पत्थर भी बरसा देते हैं। बच्चे भी मेरी पूँछ मरोड़ देते हैं। उसकी बात सुनकर महात्मा जी ने उस साँप को समझाते हुए कहा कि तुझे लोगों को काटने के लिए मना किया था। यह थोड़ा कहा था कि तुम फुफकारना भी छोड़ दो। दूसरों को डराने के लिए अपना फन फैलाते हुए फुफकार अवश्य करो।
         निर्विषेणापि सर्पेण कर्त्तव्या महती फटा।
विषो भवति वा मा भूत् फटटोपो भयङ्कर:॥
अर्थात विषरहित साँप को भी फुफकारना चाहिए। उसके पास विष हो चाहे न हो पर उसका फन फैलाना ही सबके हृदय में भय पैदा कर देता है।
         अग्नि बहुत ही शक्तिशाली है। वह बड़े-बड़े जंगलो और भवनों तक को नष्ट कर देती है। जो भी जीव उसकी चपेट में आ जाता है जलकर भस्म हो जाता है। वही राख जब ठंडी पड़ जाती है तो उस पर चींटियाँ भी चलने लगती हैं।
          इसी प्रकार भयंकर विषधर जो किसी भी जीव को नहीं बख्शता उसके निर्जीव हो जाने पर चींटियाँ उसे खा जाती हैं।
           कहने का तात्पर्य यही है कि निर्बल व्यक्ति को इस ससार में कोई भी जीने नहीं देता। कहते हैं बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है। इसी प्रकार का व्यवहार एक बलवान निर्बल के साथ करता है। उसे हर तरह से प्रताड़ित करता है। उसका वश चले तो किसी शक्तिहीन को जीने ही न दे। वही इस दुनिया का मालिक बनकर रहने लगे। पर अफसोस यह करना उसके बस में नहीं है। ईश्वर ने अपनी सृष्टि में सभी प्रकार के जीव उत्पन्न किए हैं और उनकी रक्षा भी करता है।
          मनुष्य को ईश्वर के अतिरिक्त किसी से भी नहीं डरना चाहिए। वह उसका परम रक्षक है। इसलिए केवल उसकी शरण में जाना चाहिए। महात्मा गांधी की तरह शारीरिक बल न होते हुए भी आत्मिक बल होना चाहिए जिससे शक्तिशाली साम्राज्यों की नींव भी हिल जाती है। फिर इंसान तो कुछ भी नहीं है। वह चाहे कितना खूँखार और बलशाली हो आत्मविश्वासी के समक्ष टिक नहीं सकता।
चन्द्र प्रभा सूद
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