शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2015

संसार सागर में जीवध नैया

इस विशाल संसार सागर में हमारी छोटी-सी जीवन नैया हिचकोले खाती चलती है। यह हमारी अपनी जीवन रूपी नौका है तब इसके नाविक भी हमीं हैं। इसे सम्हालकर पार लगना हमारा कर्त्तव्य है।
         इतने विशाल समुद्र में एक छोटी-सी नाव के सहारे उसे पर करना बहुत कठिन हो जाता है । उसमें उठने वाली लहरों से नाव हिचकोले खाने लगती है। कभी-कभी बड़े-बड़े जहाजों से टकराकर इसके चूर-चूर होने का खतरा बन जाता है। यदा-कदा यह डूबने-उतरने भी लगती है। इसी प्रकार इसे विशालकाय समुद्री जीवों का भी डर रहता है कि कहीं वे आक्रमण करके उसकी नाव को डूबो कर नाविक को खा न जाएँ। यह भी सम्भव है कि वह वहीं-कहीं उलझकर गायब हो जाए।
         इसी प्रकार यह संसार भी जीवों का सागर है। यहाँ फूँक-फूँककर कदम रखना पड़ता है। जरा-सी चूक हुई कि सब समाप्त हो जाता है। यहाँ मनुष्य सुखों और दुखों की लहरों पर डूबता-तरता रहता है। कभी वह नीचे डूबता हुआ पटखनी खाता है तो फिर कभी ऊपर तरता हुआ सफलता के सोपानों को छू लेता है।
         जीवन के ये उतार-चढ़ाव उसे चाहे-अनचाहे भोगने पड़ते हैं। इन सब थपेड़ों को सहना उसकी नियति है। या यूँ कह सकते हैं कि उसकी मजबूरी है। अपने पूर्वजन्म कृत सुकर्मो अथवा कुकर्मों को भोगकर ही वह इस ससार के बंधनों से मुक्त हो सकता है। उन्हीं के अनुसार ही उसे जीव योनि प्राप्त होती है।
          संसार में रहते हुए उसे सज्जनों का संसर्ग मिलता रहता है जो उसकी सर्वविध उन्नति करने में सहायक बनते हैं। फिर कभी दुर्जनों का साथ मिल जाता है जिनकी संगति उसके विनाश का कारण बनती है। मनुष्य स्वतन्त्र है जहाँ चाहे वह जा सकता  है। अब यह मनुष्य के स्वयं के विवेक पर निर्भर करता है कि वह किस ओर जाना पसंद करता है। वह अपना उत्थान चाहता है या पतन।
          इस जगत में कदम-कदम पर विशालकाय मगरमच्छ रूपी मनुष्य भी हमें राह चलते मिल जाते हैं। जिनसे बचना बहुत कठिन होता है। समझदार मनुष्य कोई-न-कोई उपाय करके उनसे पार पा ही लेते हैं और दूसरे लोग उनके जाल में फंसकर छटपटाते रहते हैं। ऐसे हिंसक प्रकृति के लोगों से जितनी भी दूरी बनाकर रखी जाए उतना ही लाभदायक होता है। यत्न यही होना चाहिए कि हमारा फायदा कोई करे या न करे पर वह हमारा नुकसान न कर पाए।
         यह भौतिक जगत मनुष्य को पाप कर्मों के दलदल में बरबस खींचता है। उससे निकल पाना बहुतही कठिन होता है। इसलिए मनीषी इस दलदल में न फंसने की चेतावनी देते हैं। इस दुनिया में मोह माया भी हमें बराबर पीछे की ओर धकेलते हैं। इनको पीछे ठेलते हुए अपनी जीवन नैया को बचाकर दूसरे किनारे पर लेकर जाना है। यह कोई कठिन ऐसा कार्य नहीं है बस हमारी इच्छाशक्ति दृढ़ होनी चाहिए। तभी हम अपना बचाव करने में समर्थ हो सकते हैं अन्यथा यही सच है कि तब हमारी रक्षा कोई भी नहीं कर सकेगा।
         हमारी यह छोटी-सी जीवन नैया इस महासमुद्र में हिचकोले न खाए इसलिए उसे बाधारहित इस भवसागर से पार ले जाने के लिए हमें सत्कर्मों को करने की महती आवश्यकता है। ईश्वर का दामन थामकर, उस मालिक पर पूर्ण विश्वास करके और स्वयं को समर्पण भाव से उसे सौंपकर ही हम इस वैतरणी को पार कर सकते हैं। अन्यथा हम यहाँ हिचकोले खाते रहेंगे और अन्य लोग हमारा तमाशा देखते रहेंगे। इस संसार सागर में हमें डूबाने में लोग जरा-सी भी कसर नहीं छोड़ना चाहते।
चन्द्र प्रभा सूद
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